श्री राधा
प्रेम आहा .....कैसी दिव्य अनुभूति होती है यह प्रेम ॥ सदा हृदय में प्राणों में आत्मा में रस का सृजन करने वाली मधुर सी शीतल सी गुदगुदी करने वाली अनुपम अनुभूति है प्रेम ॥ कितना रस भरा इसमें कि जिस हृदय में तनिक सा अणु भी किशोरी कृपा से प्रस्फुटित हो जावे तो सर्वस्व ही रस रंजित हो नित्य उसका ॥ पर क्या प्रेम हृदय में विकसित होते हुए भी इस विलक्षण तत्व को हृदयंगम कर पाना सरल है सहज है ! संयोग जितना शीतल सुखद मधुर वियोग उतनी ही दाहक मर्मातंक पीड़ा को प्राणों में संजो देता ॥ पर प्रेम की गहनता तो वियोग बिना संभव ही नहीं कभी ॥ संयोग रस निमज्जन कराता है परंतु वियोग तो प्रेमी को साक्षात् प्रेमास्पद ही कर देता ॥।विरह की महाअनल में पल पल तप कर ही तो रस रूप स्वर्ण कुंदन हो पाता ॥ वियोग ही तो प्रेम की अनन्त कोटि गहराइयों में प्रेमी का कर पकड ले चलता ॥ संयोग रस की वीथियों में विचरण कराता है तो वियोग प्रेम की गहनतम् रहस्मयी कंदराओं के कोने कोने से परिचय करा देता ॥ वियोग ही तो नित नवीन रहस्य उजागर करता हृदय निकुंज के ॥ निकुंज ..... हां यहीं तो प्रेम की गहनतम् रहस्मयी कंदरायें हैं ॥ निकुंज अर्थात् प्रियतम श्यामसुंदर की निज सुखस्थली ॥ तो यहीं पहुँचना तो लक्ष्य हमारा न ॥ पर यहाँ पहुंचने का पथ तो रस वीथिकाओं के साथ साथ वियोग की संकरी एकांतिक पगडंडीयों से भी सुसज्जित है न ॥ पर एकांतिक सी दिखती अनुभव होती इन पगडंडीयों पर भी वो प्राणों के नित्य संगी वो चिरन्तन प्रेमी श्यामसुन्दर कभी हमारा कर न छोडते , छोड़ पाते ही नहीं छोड सकते ही नहीं कभी नहीं ॥ पर वे मयूरमुकुटी बडे लीलाकौतुकी हैं न तो छिप छिप जाने का बडा व्यसन उन्हें कि वे छिप जावे प्रेम की गहन कंदरा में और हम व्याकुल हो ढूंढे अपने आत्मधन को ॥ जितनी व्याकुलता हमें उन्हें पुनः पाने की खोजने की उससे कहीं अधिक उन्हें कि खोजा या नहीं अभी पहुँचा या नहीं अभी मेरा प्यारा मुझ तक, कि पूर्ण प्राप्त कर ले ये मुझे कि कहीं कोई भेद न रह जावे कि कहीं मैं कुछ शेष न रह जाऊँ कि इसका संपूर्णतम् निजत्व हूँ न मैं ॥मिलते छिपते छिपकर मिलते तकते राह सदा ये प्रियतम कि आता होगा अब आयेगा अब पहुँचेगा प्यारा मेरा ॥ छिप जाते फिर स्वयं ही बता भी देते कि यहाँ छिपा हूँ शीघ्र आजा मिलन की चटपटी सी लगी रहती इन रसिकशेखर को ॥ प्रेम ही ,गहन प्रेम ही निज स्वरूप है न इन निकुंज विलासी रसिक सिरमौर का ॥।इन्हें आत्मभूत करना है तो गहराई में तो उतरना ही पडे ॥ और उन गहराइयों में ले जाने वाला कौन वहाँ पथ प्रदर्शक कौन ,यही तो है प्यारा वियोग ॥ यही तो आलोकित कर देता सहज ही इन सर्व रस सार तत्व स्वरूप रसराज के नितांत अनावृत रूप का ॥ क्या है यह रूप कैसा है यह परम अचिन्त्य स्वरूप .....यह हैं हमारी प्राण अधिष्ठात्री रासेश्वरी निकुंजेश्वरी कृष्ण हृदय विलासिनी उर आह्लादिनी निभृत तत्व स्वरूपिणी श्री वृषभानुनंन्दिनी ॥ उन्हीं के पुनीत रसोदगम् कृष्ण जीवन सार श्री चरनन तक ले जाता हमें यह परम अनुग्रह स्वरूप वियोग ॥ परम प्रेष्ठ है ये परम वरेण्य है कि सहज ही स्थापित कर देगा हमें कृष्ण कामना कल्पतरु की नवीन नूतन मंजरियों के सुकोमल पल्लवों के रूप में .....॥
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