Skip to main content

र से रस , 42 , संगिनी जु

!! रस परिक्रमा !!

परिक्रमा अर्थात किसी मंदिर या मूर्ति की परिक्रमा नहीं।रसिकों के भाव से परिक्रमा अर्थात भावपूर्ण परिक्रमा।एक तो जो वे करते गिरिराज जु की और एक रस परिक्रमा जो होती युगल सखियों की अपने प्रियालाल जु के नख से शिख तक एक एक रसअंग व रसश्रृंगार की।अति गहन भाव रस के रसिक व रस सखियाँ श्रीयुगल की ही परिक्रमा करते जो रसस्वरूप भी हैं और भिन्नता में अभिन्नता की परिपाटी भी।श्रीयुगल सखियाँ भिन्न देहों में अवतरित एक अटूट अभिन्न रस लिए युगलार्थ ही सदैव झन्कृत होते व उनके रसावरण की परिक्रमा करते रहते हैं।ऐसी ही एक अति गहनतम रस परिक्रमा करते हैं श्रीयुगल परस्पर।प्रभात में स्नान आदि कर जब झीनी सी साड़ी पहन श्यामा जु श्रृंगार हेतु सखियों संग श्रृंगार भवन में परिविष्ट होते हैं तो उनकी भीगी हुई सी रूपमाधुरी से रसबूँदें श्यामसुंदर जु के सांवल मुख पर झलकती हैं और वे वंशी बजाना छोड़ सखियों से श्यामा जु की श्रृंगार सेवा का आग्रह कर बैठते हैं।उनकी दैन्यता भरी मनुहार सुन सखियाँ उन्हें एक मौका देतीं हैं।अब जब श्यामसुंदर जु अपनी प्रिया जु की सेवारत सखी रूप उनका अद्भुत श्रृंगार करते हैं तो सखियाँ अत्यंत चकित सी हो बस निहारती ही रह जातीं हैं।इतना दिव्य भव्य श्रृंगार कि वे अति अति बलाईयाँ लेतीं अपने नेत्र ही झुका लेती हैं कि कहीं उनकी नज़र ना लग जाए रसमाधुर्य की रूपराशि श्यामा जु को।नेत्रों में अंजन लगाते श्यामसुंदर जु स्वयं अंजन रूप हो जाते हैं और पूरी सतर्कता बरतते हैं कि थोड़ी भी चूक हुई तो सखियाँ फिर उन्हें सेवा का मौका ना देंगी।प्रिया जु अपने अति चंचल प्रियतम को निहारतीं उन्हें श्रृंगार धराने का प्रस्ताव रख देतीं हैं।तब तो सखियाँ और भी चौकन्नी हो मुख फेर कर दर्पण में ही श्रीयुगल को निहारने लगतीं हैं।वे जान ही नहीं पातीं कि इनमें कौन प्रिया और कौन प्रियतम हैं।परस्पर श्रृंगार धराने पर अब प्रियालाल जु परस्पर बैठ पूर्ण तन्मयता से एक दूसरे को निहारने लगते हैं।इस निहारन में आश्चर्य यह कि वे दोनों एक एक अंग व आभूषण का नीरीक्षण कर रहे हैं और जिस भी आभूषण पर श्यामा जु दृष्टि डालती हैं उसी को लाल जु निहार रहे होते हैं।ऐसे निहारने में हर एक आभूषण आरसी रूप प्रियालाल जु को परस्पर उनकी ही रूपछवि दिखाने लगते हैं और एक ही आभूषण को एक ही समय पर निहारने में उनकी नज़रें भी मिलती ही हैं और यूँ होती है रस परिक्रमा श्रीयुगल की परस्पर नख से शिख तक।सत्य में अद्भुत रस झन्कारें परस्पर श्यामा श्यामसुंदर जु और फिर सखियों व श्रीयुगल जु में।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे इस अद्भुत रस परिक्रमा की
रस ध्वनित झन्कार कर दो
तुम जो कह दो तो
तुम में तुम्हारी रूपराशी की
सखियों व रसिकों की
रस परिक्रमा में
बहकती मचलती
भावपूर्ण दर्शनार्थ
रस चपला सी नख से शिख तक
रस झन्कृत होती रहूँ  !!

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात