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र से रस , 50 , संगिनी जु

!! रस !!

रसस्वरूप श्रीकृष्ण परात्पर और महाभावरूपा राधे जु जहाँ विराजती विहरती हैं वहाँ की कुंज निकुंजों में प्रेम प्राणवायु बन बहता है और रस बन हृदय मंदिर में उतरता है।रगों में रवानगी रक्तस्कित नहीं अपितु रसस्कित है।राग अनुराग से सींचित माधुर्य सौंदर्य से सदैव पोषित वात्सल्य तत्सुख भाव से सेवित प्रेम भाव से पूजित इस देह में रस बन उमड़ती घुमड़ती झन्कारें चपल चंचल मनः विकारों को हरती हुई सदैव एकरूप रहती हैं।श्यामा श्यामसुंदर जु का अनंत कोटि का अद्भुत प्रेम भाव व सखियों का अनंत ब्रह्मांडों में से संजोया श्रीयुगल हेतु रसवर्धक विशुद्ध प्रेम जो ब्यार संग उन्हीं के श्रीचरणों से बहता है और फलित होता है रस बन रस पिपासुओं के रस हृदयों में।श्रीवृंदावन धाम में रस बन ही प्रेम कण कण में समाया है और देह में रस भावस्वरूप ही जड़ चेतन प्रेम में विराजमान झन्कृत होता है।श्यामा श्यामसुंदर जु परस्पर प्रेमरसित वार्तालाप हास परिहास तो कभी मंत्रमुग्ध तिरछे नयन कटाक्षों से व कभी मिलन की गहनतम स्थितियों में और कभी मिलनातुर होकर तत्पर रसप्रवाह करते धाम की पवन में अद्भुत सुगंध बन झन्कृत होते रहते हैं।उनकी मधुर रसपूर्ण अट्टकेलियाँ द्रवित हो रसरूप सखियों व रसिकों के हृदय में बहती हैं और इनके स्पर्श स्पंदन से वही परात्पर प्रेम रस भाव बन उच्छलित होता है यमुना जी की श्यामल गौर भावतरंगों में।
हे प्रिया हे प्रियतम !
मुझे इन 'र' से रसपूर्ण भावों की
मधुरिम थिरकती
एक रस झन्कार कर दो
तुम जो कह दो तो
शांत निशांत निकुजों में
भाव रस झन्कार बन
कभी व्याकुलित तो कभी स्थिर
रस बहाव बन कंपित सिहरती रहूँ  !!

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