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र से रस , 37 , संगिनी जु

!!नेत्रों का श्रृंगार हृदय का हार !!

परस्पर निहारते युगल का नित्य नव रूप और हार श्रृंगार उन्हें सदैव चिन्मयता में तन्मयता के रस में डुबोए रखता है।नित्य नव लीलाओं में सखियाँ नित्य नव श्रृंगार धरातीं हैं प्रियालाल जु को और इस नित्य नव श्रृंगार का स्वरूप ऐसा चिन्मय कि मंत्रमुग्ध भंवर से श्यामा श्यामसुंदर जु केवल परस्पर निहारने में ही पूर्ण रात्री बिता देते हैं और उन्हें बोध ही नहीं होता कि ऊषा का आगमन हो चुका है।एक एक वस्त्राभूषण में प्रियामुख को नेत्रों में भर भर श्यामसुंदर पीते नहीं अघाते और जिस जिस अंगकांति का वे मग्न हो रसपान करते उसमें डूबे हुए उसी पर न्यौछावर होते उसी अंग का आभूषण वे हो जाते।प्रतिपल उनकी प्यास बढ़ती ही जाती है और वे अद्भुत रूपमाधुरी का नयनों से ही पान करते रह जाते हैं।ऐसी ही रसतृषा श्यामा जु की।वे भी मनमोहन छवि के रूप का ऐसा रसपान करतीं हैं कि उनका एक एक रोम कृष्णमय हो जाता है और उनका पीताम्बर स्वयं श्यामा जु ही हो जातीं हैं।श्यामा जु के अति कोमल व सुंदर सुराही जैसे कंठ से उतर जैसे ही श्यामसुंदर उनकी कसी हुई कंचुकी बंध पर दृष्टिपात करते तो कंठहार ही हो जाते और प्यारी जु श्यामल नयनों में ऐसी उतरतीं कि उन कजरारे काले नयनों का अंजन हो अखियों में समा जातीं हैं।यूँ ही परस्पर डूबे हुए श्यामा श्यामसुंदर जु अपनी तृषा को बढ़ाते रहते और स्वयं परस्पर रूप स्वरूप में भर भर कर देहों को विस्मृत करते हुए एक दूसरे के प्राण बन झन्कृत होते रहते।ऐसी दिव्य चिन्मय रसपूर्ण रसधार अनवरत बहती कि पहले तो सखियों को यह जान नहीं पड़ता कौन श्यामा जु और कौन श्यामसुंदर और फिर जैसे ही आरसी ले सखियाँ प्रियालाल जु के सम्मुख आतीं तो वे दोनों ही प्रतिबिम्ब में अपनी मुखछवि को खोई हुई पाते व श्यामसुंदर जु श्यामा जु और श्यामा जु श्यामसुंदर हो परस्पर निहारते।अद्भुत रस झन्कारें उठती उनके देह स्पंदन से जो सखियों को भी स्पंदित करतीं झन्कृत करतीं हैं।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे वह अति गूढ़ रसधार कर दो
प्रिया जु का गलहार और
प्रियतम का नयनअंजन बन
परस्पर सुख हेतु स्पंदित होती रहूँ
तुम जो कह दो तो
रस झन्कार सी मैं
'र' से रूपमाधुरी का
तुम सुख हेतु गहन स्पंदन बन
सदा थिरकती रहूँ  !!

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