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प्रभात झाँकी , मृदुला

प्रिया लाल को मिलन है सर्व रसन को सार
बरसत चहुँ ओर यही बनकर मधु रस धार
युगल प्यारे कुसुमित कुंज में नेत्रों से नेत्र उलझाये बैठै हैं रसमगे रसपगे चार नयन रस में डूबे न जाने क्या क्या कह रहें है न जाने क्या क्या सुन रहे हैं ॥ एक दूसरे में डूबने को अकुलाते जैसै दोनों ही के युगल नयन सागर को पी भी लेना चाहते है और सागर में डूब भी जाने को उत्सुक ॥ ऐसा लग रहा है जैसै रस के नीलाभ गगन में दो प्रेमी कपोत संग संग स्वच्छंद विहरण कर रहे हैं ॥ रस सिंधु में डूबे हैं दोउ रसीले नयन । डूबते उतराते कितना काल बीत चला है इन दोउ रस केलि लीन रसिक युगलवर को भान ही नहीं है ॥ इन का यूँ रस में डूबना ही तो समस्त रसों का सार है ॥ ज्यों ज्यों रस के सिंधु में नवीन तरंगें विलस रहीं हैं त्यों त्यों यही रस चहुं ओर रस मालिकायें बन बरस रहा है ॥ इन प्रेम आवर्तों मे घूमते इठलाते दो चंद्रकमलों को तो पता ही नहीं कि इनके चहुँ ओर प्रकृति नूतन रस से सौन्दर्य से रंग से लावण्य से भर उठी है इनके इस रस अवगाहन से ॥ न जाने कितने प्रसून खिल गये हैं अपने मकरंद को बिखेरते हुये ॥ न जाने कितनी कोमल कलियाँ अपनी सरसता को सहेजे चटक उठी हैं ॥ शीतल मंद समीर पुष्पों की सुगंध इन पर उडेल पुष्पों की अभिलाषायें पूर्ण कर रहा है ॥।लता वल्लरियों में नव नव  कोमल पल्लव प्रस्फुटित हो रहे हैं ॥ लतायें तरुओं से लिपट लिपट प्रेम में विह्वल  हो रहीं हैं और तरुवर आनन्द से झूम झूम निज पल्लवों की मधुर सरसराहट से मधुर संगीत सृजन कर युगल के रसालाप को और मधुरिम   किये जा रहे हैं ॥ मेघ नन्हीं नन्हीं फुहारों को अति कोमलता से बरसा कर सरसता की अभिवृद्धि कर प्रसन्न हो रहे हैं ॥ चहूँ ओर राग रागिनियाँ प्रकृति में व्याप्त हो रस रंग की छटा बिखेर रहीं हैं ॥ सखियाँ लता छिद्रों से प्राण प्यारे युगल के परस्पर उलझे हुये मधुर रस के सार दो नयन चकोरो को निहार निहार पुलक रहीं हैं ॥ उनके रोम रोम में आनन्द की तरंग स्पंदित हो  रही हैं ॥ प्रिया प्रियतम का प्रेम रस प्रवाह सब ओर बह रहा है ॥ वृंदावन का अणु अणु इस रस प्रवाह से रसमय हो चला है ॥ और गाढ़ और मधुर और कोमल और लावण्ययुक्त प्रतिपल बढने वाला सुर दुर्लभ श्री वृंदावन रस ॥ ऐसे रसो के नित्य निवास स्थल श्री वृृंदावन की जय हो जय हो जय हो ॥।

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