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मृदुला 2

अब तो यूं लागे कि जो भी भोगा जा रहा वहाँ एक क्षण रुक कर तनिक ये सोचा जायें कि क्या इसमें सुख है उनका ? जो दृश्य नेत्रों का विषय बन रहे क्या हैं उनके योग्य वे । जो गीत सुन रहे हम जो विष भर रहे कर्ण पुटों में होगा क्या इसमें उनका सुख ॥ जो स्पर्श कर रहे इंद्रीय से उन्हें सुख क्या है इससे । जो रस दे रहे रसना को निज क्या है उनके काबिल वह रस ॥ क्या जी रहे हैं हम क्या कर रहें हैं ॥ ऐसा लगता कि उनके लिये प्रतिकूलताओं का , विषों का भंडार बना लिया हमनें स्वयं को ॥ हर पल हर क्षण उनके विपरीत रहना ही जीवन बन गया हमारा ॥ भोग रहे हैं हम पर यदि प्रेम कर पाते तो उनका सुख जीते ॥छोटे से पुष्प से भी प्रेम नहीं कर पाते उसे भी भोग लेना चाहते । क्या उसका कोमलत्व उसकी सुगंध उसकी स्निग्धता उसका रसमकरंद प्रियतम का नहीं  ॥ यदि हम उससे प्रेम नहीं कर पाये तो उसके महान उद्गम से कैसै प्रेम करेंगे । भीतर उतरने वाली हर वस्तु प्रियतम के सुख की कसौटी पर होकर गुजरे तो स्वयं ही सुख प्रकट होने लगेगा उनका ॥ जीयें उन्हें अपने भीतर हम वही होकर तभी जानेंगे प्रेम रस को ॥ स्वयं को मिटा उन्हें भर लें तो सर्व रस रहस्य उदघाटित कर देंगे वे हममें ॥

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