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मृदुला 2

अब तो यूं लागे कि जो भी भोगा जा रहा वहाँ एक क्षण रुक कर तनिक ये सोचा जायें कि क्या इसमें सुख है उनका ? जो दृश्य नेत्रों का विषय बन रहे क्या हैं उनके योग्य वे । जो गीत सुन रहे हम जो विष भर रहे कर्ण पुटों में होगा क्या इसमें उनका सुख ॥ जो स्पर्श कर रहे इंद्रीय से उन्हें सुख क्या है इससे । जो रस दे रहे रसना को निज क्या है उनके काबिल वह रस ॥ क्या जी रहे हैं हम क्या कर रहें हैं ॥ ऐसा लगता कि उनके लिये प्रतिकूलताओं का , विषों का भंडार बना लिया हमनें स्वयं को ॥ हर पल हर क्षण उनके विपरीत रहना ही जीवन बन गया हमारा ॥ भोग रहे हैं हम पर यदि प्रेम कर पाते तो उनका सुख जीते ॥छोटे से पुष्प से भी प्रेम नहीं कर पाते उसे भी भोग लेना चाहते । क्या उसका कोमलत्व उसकी सुगंध उसकी स्निग्धता उसका रसमकरंद प्रियतम का नहीं  ॥ यदि हम उससे प्रेम नहीं कर पाये तो उसके महान उद्गम से कैसै प्रेम करेंगे । भीतर उतरने वाली हर वस्तु प्रियतम के सुख की कसौटी पर होकर गुजरे तो स्वयं ही सुख प्रकट होने लगेगा उनका ॥ जीयें उन्हें अपने भीतर हम वही होकर तभी जानेंगे प्रेम रस को ॥ स्वयं को मिटा उन्हें भर लें तो सर्व रस रहस्य उदघाटित कर देंगे वे हममें ॥

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युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

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