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र से रस , 47 , संगिनी जु

!! शरणागति !!

शरणागत दास दासियों सखी मंञ्जरी सहचरियों व रसिक जनों के हिय में सदा मधुरिम झन्कारें प्रतिपल उठती रहती हैं कि कब प्रियालाल जु अनवरत पुकारने वाले उनके भक्तों को पुकार कर किसी सेवा का अवसर दें।उनके मन चिंतन में सदा यही भाव झन्कृत होता रहता कि वे अनन्य सखी सहचरियों संग रसमयी निकुंजों में लीलाधर व लीलाशरणागतों  की अनंत कोटि के रासमंडप में विद्यमान हैं और अद्भुत रसलीलाओं का मनन संवरण कर रहे हैं।इस सब में उनके चिंतन में श्रीयुगल सुखरूप सेवारत सखियों का भाव झंकृत रहता है और वे तन्मयता से प्रियालाल जु की शरण लिए यही चाह रखते हैं कि युगल उन्हें यकायक पुकार उठें और मनःस्थिति जान हास्य परिहास गायन बींजन या कोई भी ऐसी सेवा दें जिससे उनके निकुंज में होने का भाव गहरा सके।दरअसल निकुंज में रहते संगिनी सखियों का वहाँ होना कोई दैहिक शरणागति नहीं है।यथार्थ श्रीवृंदावन धाम में चिन्मय रूप से रस पिपासु कुछ भी कार्य कर रहे हों उनके चिंतन में युगल हैं तो कण मात्र का स्पर्श भी युगलस्पर्श ही सिद्ध होता है।उनकी सभी हाथ कान मुख नेत्र व चलने की क्रियाएँ श्रीयुगल में ही डूबी हुई होती हैं।अंतरंग एकांतिक स्थिति का बोध बाह्य गतिविधियों से उन्मुक्त प्रियालाल जु में उनकी सेवा भावना में तन्मय होने से कभी उजागर होता भी है तो कभी नहीं भी।अष्टयाम सेवा में संलग्न वे पूर्ण तन्मयता से प्रतिपल युगल रसक्रीड़ाओं का चिंतन करते हैं कि किस समय सखी सहचरियों संग युगल कौन सी रसक्रीड़ा कर रहे हैं।उनके चिंतन में लौकिक क्रीयाएँ स्वतः घटित होती रहती हैं और अंतर्मुखी भावजगत वे पूर्ण सतर्क प्रियालाल जु के संग का भाव प्रगाढ़ करते चले जाते हैं।जाने कब किस रस में युगल उन्हें सेवाहेतु पुकार उठें।जागतिक सेवा में भी प्रियालाल जु की सेवा का भाव सतत जागृत रहता और गहराता है।ऐसे शरणागत भक्तजनों का चिंतन श्यामा श्यामसुंदर जु भी करते हैं और उनके भावरस में डूबे वे भी वैसा ही सब करते हैं जो रसिक हृदय को सुखार्थ हो।परस्पर प्रेम में प्रेमी व प्रेमास्पद दोनों ही तन्मय हुए झन्कृत रहते हैं।जहाँ प्रत्येक रसिक सखी दास दासी इत्यादि अपने भाव से युगल शरणागत हो भावसमर्पण करते हैं वहीं युगल भी समग्र रसिकों के मानसपटल पर उनकी सेवा याचना का अनुमोदन करते हैं।जैसे हर गोपी गौ और सखा सखी को यही भाव रहता है कि श्रीयुगल उस संग वनविहार व लीला कर रहे हैं ऐसे ही उतने ही स्वरूपों में युगल झन्कृत रसिक हृदय में भी वास करते व लीलाएँ रचते हैं।प्रीति की रीति रंगीलो ही जाने और शरणागत भक्त के भी शरणागत प्रभु अति दीनदयाल स्वयं झन्कार बन विचरते रसिक देह रूपी मंदिर में।
हे प्रिया हे प्रियतम !
ऐसी मधुरिम शरणागत
रसलिप्त झन्कारों की
मुझे इक सरगम मात्र कर दो
तुम जो कह दो तो
पूर्ण तन्मयता से
तुम्हारी शरण में
कभी मधुर तो कभी सिसकती
एक रसझन्कार बन
भावजगत में विचरती रहूँ  !!

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