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मृदुला 5

श्री राधे

हम सदा से श्री सखियों , सहचरियों , मंजरियों के श्री प्रिया जू लाल जू के प्रति अथाह प्रेम भाव सेवा भाव को पढते सुनते आये हैं ॥ पर आज किशोरी के निज सखियों , सहचरियों के प्रति अद्वितीय प्रेम के विषय में कछु  कहने को मन है ॥ किशोरी का प्रेम आह कुछ कहते ही नहीं बनता  ॥कैसा अदभुत स्वभाव है लाडली को ॥ इतना प्रेम की हृदय सदा द्रवीभूत हुआ रहता है ॥ नेत्रों से सदा अश्रु प्रवाहित होते रहें और रोम रोम पुलकित हो रहें  ॥ कैसा दिव्य भाव निज सखियों के प्रति सहचरियों के प्रति ......॥ यदि श्री प्रिया का वश चले तो वे उन सबन को अपनी स्वामिनी बना स्वयं को उनकी चरण किंकरी कर लेंवें ॥ श्री प्रिया के लिये उनकी एक एक सखि ,मंजरी कितनी प्राणों से प्यारी है यह केवल श्री प्रिया हृदय ही जाने है ॥ सखियों की जीवन लाडली और लाडली को कोटि कोटि प्राणवत् प्रिय  सखियाँ ॥ इतना  प्रेम ऐसा प्रेम हम सोच भी नहीं सकते ॥ हमें लगता प्रेम तो केवल प्रियालाल का परस्पर के प्रति है और सखियों का प्रियालाल के प्रति ॥ परंतु वास्तव में ये तीनों  ही आपस में ऐसे गुंथे हुये हैं कि किसी का पृथक अस्तित्व ही नहीं ॥ जिस प्रकार त्रिभुज का हर कोना ही त्रिभुज को बनाता है और त्रिभुज को चाहें जिधर से घुमा लो वह समान ही रहता वैसै ही निंकुज लीला , रस रूपी त्रिभुज के तीन कोण श्री लाडली श्री लाल जू और ये समस्त सखिगण हैं ॥ किसी का किसी के लिये भी प्रेम भाव तनिक भी न्यून नहीं वरन उत्तरोत्तर वर्धमान ही है सदा ॥ किशोरी की प्राण सखियाँ , सखियों की प्राण किशोरी ॥ सखियाँ सदैव किशोरी की सेवा के लिये प्राणपण  से आकुल और किशोरी उनके सुखार्थ स्वयं को उनका सेव्य बनाये हुये ॥ जितनी पीड़ा  किसी सखी या सहचरी को श्री प्रिया का तनिक सा वियोग होने पर उससे अनन्त गुना अधिक पीड़ा श्री लाडली को ॥ और यहाँ प्रेम का स्वरूप परस्पर सुखार्थ ही है निज सुख कदापि भी नहीं ॥ सखियों का परम सुख युगल का नित्य मिलन और युगल भी इनके सुखार्थ सब लीला करते ॥ जैसे ये सखियाँ नचातीं इन युगल रत्न को वैसै ही नृत्य करती दोनो प्राण मणियाँ ॥ और सखियाँ क्या निज सुख हेतु नचावें इन्हें  कदापि नहीं वरन इन्हीं के सुखार्थ संचालित करती दोनो के मनों को ॥

युगल का मन सखियों के पास आ गया है और सखियों का मन युगल के पास पहुँच गया है ॥ सखियाँ सदा युगल के मन की करना चाहतीं हैं और युगल सदा सखियों के मन की ॥ परस्पर मनो का परिवर्तन हो गया है ॥ कौन किसके मन की कर रहा कोई बाहर का जान ही नहीं सकता और इसी कारण चकित होते ये लीलायें देख देख  ॥ एक ही प्रेम तत्व तीन आश्रयों में विलस रहा । तीनों ही आश्रय तीनों ही अवलंबन भी हैं ॥ तीनों ही तीनो के सुखार्थ । यही स्वरूप तो निकुंज लीला का ॥ निज सुख को प्रवेश कहाँ वहाँ ॥ जीवन प्राण श्वास  सब परस्पर के सुख हित ॥प्रिया लाल साखियों के मन की कठपुतली बने हुये और सखियाँ युगल के मिलित हुये एक ही मन की सजीव मूर्तियाँ ॥

हम सुना करते कि रास के समय किशोरी की पायल को कोई नूपुर निधिवन में छूट गयो तो अगले दिन सखियाँ आती उसे ढूंढने ॥ क्यों क्या  आवश्यकता है इसकी अरे त्रिलोक साम्राज्ञी के पास पायलों  नुपुरों की भला क्या कमी ॥ पर वे नुपुर क्या साधारण जड नुपुर हैं क्या नहीं वे तो श्री प्रिया की निज अंग स्वरूपा सखियाँ सेविकायें हैं ॥ जिनका विछोह जितना उनके स्वयं के लिये कष्टदायी है उससे अनन्त गुना लाडली के लिये है॥ सो वे ही आकुल हो ढूंढती उन्हें ॥   जी हां वे ही तो ढूंढ रही सदा से माया जगत में खोई हुयी अपनी प्राण प्यारी सखियों को ॥ उनकी व्याकुलता उनकी प्रतीक्षा हम क्या जानें ....॥ हमारे चित्त में उपजा नेह उनकी व्याकुलता का ही तो परिणाम है

उनके हम सबन्ह के प्रति अपार प्रेम की कोई नन्हीं सी कणिका जब साधन से , विरहानल से  शुद्ध हुये हमारे  हृदय में प्रतिबिंबित हो झिलमिलाने लगती तो ही प्रेम का वास्तविक स्वरूप आत्मसात हो पाता ॥ प्रेम की समस्त वृत्तियाँ श्री राधा रूपी महाभाव सिंधु की छोटी बडी़ तरंगमालायें ही तो हैं और यही तरंगमालायें ही इन निकुंज सखियों सहचरियो ,मंजरियों किंकरियों सेविकाओं के रूप में युगल सुखार्थ नित्य निकुंज में लहराती रहती हैं ॥ ये रस तरंगे नित्य अपने प्रेम रस द्वारा युगल का रसाभिषेक किया करती हैं ॥ चारों ओर से बहती ये रस लहरियाँ मध्य में अवस्थित अपने केंद्र बिंदुओं (रसयुगल )पर रस वर्षण कर कर स्वयं भी रस  निमज्जित होती रहतीं ॥ एक ही रस दिनकर की अनन्त रस रश्मियाँ रस वृष्टि करतीं निज स्वत्व पर और स्वयं शत् सहस्र कोटि नव नव रस भासित हो उठती इस वर्षण से ॥ दिनकर भी उनके रसार्चन से प्रमुदित हो नित नवीन शोभा को पाता जाता ॥

जानते हो श्री प्रिया की यह दिव्य श्रंगार रूपी सखियाँ प्रियतम के मन की भावनायें हैं प्रिया सेवा की ॥ प्यारे के हृदय की अनन्त कामनाएँ ही मूर्तिवंत हो प्यारी की दिन रैन सेवा करती प्रेममयी ॥ प्रियतम के हृदय भाव ही प्रिया का श्रंगार और प्रिया की प्रेम भावनायें गहरे भाव ही प्रियतम का दिव्य श्रंगार हैं ॥ प्रिया की रस सेवा भावनायें कृष्ण प्रेम आधिक्य  सखियाँ होतीं और प्रियतम की गहन सेवा भावनायें श्री राधा प्रेमाधिक्य सखियाँ होतीं ॥ इनके परस्पर प्रेम , सेवा  वासना का कोई ओर छोर ही नहीं है ॥दोनो इतने प्यासे इतने प्यासे कि .........॥ कहीं सिरा ही नहीं इस गहनतम् अनन्ततम् तृषा का ॥ तृषा को भी तृषा जग जावे या यूँ कहुँ कि तृषा रूपी तत्व को जीवन देने वाली उनकी तृषा ॥ वैसै कहा जावे तो समस्त गुणों को उनका तत्व दान करने वाले ही ये दोनों हैं ॥ सदा समस्त गुणों के मूल उदगम दौ किशोर ॥समस्त गुणों के आदि जनक हैं दो रस कलेवर ॥ कहाँ तक कहो कितना ही कहो पर प्यास नहीं बुझती क्योंकि कुछ भी कहा जावे वो इनके स्वरूप का अणु भर मात्र भी परिचय दे ही नहीं सकता कभी  ॥

मोहे तो एसा लगता इन्हें देख देख कि प्रिया के मनोभाव प्रियतम मुखमंडल , वपुः पर झलकते और प्रियतम के प्रिया के नख शिख पर प्रकाशित होते जैसै सागर की लहरें मचलती हैं वैसै दोनो के चंद्रकमल मुख पर परस्पर के मनोभाव अठखेलियाँ करते ॥ एक लहर जाती दूसरी आती दूसरी जाती तीसरी आती॥ महाभावों की अनन्त लहरों का ये खेल नित्य चलता रहता ॥ नित नव प्रकाश से नित नव रस से ये दो सघन प्रेम पुंज स्वर्णिम छटा बिखेरते रहते निकुंजों में , निकुंज रूपी सखियों के हृदयों में ॥

जैसै सागर में झलकते चंद्र के दो प्रतिबिंब लहरो के ऊपर विराजमान होकर परस्पर अठखेलियाँ कर रहें हों ऐसे ही ये दो परम निर्दोष निश्छल भोले से अति सुकुमार शिशु रस क्रीड़ा कर रहे ॥ परस्पर मुग्ध परस्पर आधीन परस्पर जीवन को स्पंदन को धारण किये हुये किलकते हुये से दो रस खिलौने ॥

प्रियतम के कमल लोचन , कुटिल भौहें घुंघराली अलकावलियाँ मधु भंडार अधरदल  रहस्यमयी मुस्कान सब कुछ प्रिया के ह्रदय उल्लास को ही निर्झरित करतीं सदा ॥ प्रियतम के रोम रोम से टपकता रस प्रिया का हृदय का गहन रस ही तो है ॥ प्रिया के हृदय का प्रत्येक स्पंदन ही तो रसराज  प्रियतम का रस बन छिटकता ॥

श्री प्यारी के हृदय के गहनतम भावो को पढना हो तो प्रियतम के कमल दल लोचनों में पढ लो । वहाँ सदैव स्पष्ट दिखते वे ॥ ये नयन थोड़ी न हैं ये तो प्रिया हृदय का दर्पण है। प्रिया हृदय रस ही तो इन सरसिज युगल का मकरंद है । ॥और यदि पढने से ( नेत्र रूपी पात्रों से )पीकर तृप्ति न हो तो प्रिया हृदय गहनतम् प्रेम सदा छलकाते दो अति सुकोमल अधर पल्लवों से अपने अधर पात्रों को लगा दो ॥प्रिया का ह्रदय उतर आयेगा तुममें ॥

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