!! रस हिंडोरणा रसातुर प्रेम श्य्या!!
रस में गढ़े जब श्यामा श्यामसुंदर जु श्रीवृंदावन धाम की रस धरा पर रसरूप सखियों संग बिहरते हैं तो उनके डगमग डगमग चरणों की सुमधुर थाप से राहों में स्वतः ही पुष्प खिल उठते हैं।जहाँ जहाँ श्री युगल पद रखते हैं वहाँ वहाँ श्रीवृंदा देवी पुष्प वर्षण करतीं संग संग चलतीं हैं।रात्रि सुरत केलि उपरंत श्रमित श्यामा श्यामसुंदर जु की मुखकांति अद्भुत निराली है।उनके मुख पर श्रमबिन्दु ऐसे चमक रहे हैं जैसे निकुंज में प्रतिबिम्बित सूर्य किरणें झलक रही हों।उनकी दिव्य रसभीनी महक सेवारत सखियों को पल पल उनके आगमन हेतु आगाह करती है और वे कुछ कुछ दूरी पर पहले से ही सुंदर बैठक या रस हिंडोरणों को कोमल रस पुष्पों से सजाने लगतीं हैं।धरा में ऐसी सघन झन्कारें प्रियालाल जु की प्रेम रस झन्कारों से झन्कृत होतीं हुईं सर्वत्र सर्वस को झन्कृत करती रहती हैं।पुष्पाविंत हिंडोरे में भी तरंगें उठतीं हैं प्रियालाल जु के प्रेम हेतु।चिन्मय धाम में सब ओर चिन्मयता व्याप्त है।सरस प्रेम से जड़ चेतन और चेतन जड़ वहाँ।सब रससंधु और रससुधा हेतु।जैसे ही प्रियालाल जु हिंडोरे पर विराजते हैं हिंडोरा रसरूप हो झन्कृत होता और श्रीयुगल को परिश्रम ना हो स्वतः ही झुलाने लगता अति सुकोमल रसजोड़ी को ऐसे कि उनके रसअंग परस्पर मिलें और उतार चढ़ाव से उत्सुकता बढ़ाते रहने से रसलोलुपता अनवरत बढ़ती रहे।प्रियालाल जु की रसातुर पुष्पाविंत सेज भी रसवर्धन हेतु सखियों के स्पर्श चिंतन से महकती रहती है और श्रीयुगल विश्रामित होते हुए भी श्य्या पर रस बन सदा एकरंग रहते हैं।डूबे हुए श्यामा श्यामसुंदर जु की रस झन्कारें जड़ हिंडोरणे और श्य्या को भी रसरूप झन्कृत कर देते।
हे प्रिया हे प्रियतम !!
मुझे इन मूक झन्कारों में
व्याकुल सी एक र से रसतरंग कर दो
तुम जो कह दो तो
पुष्प बन और कभी घुंघरू
रस श्य्या की सरकती चितवन बनूं
रसतरंगों में बिखरती कभी उड़ती
एक रस झन्कार बन
युगल कर्णप्रिय ध्वनि बन सुनूं !!
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