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र से रस , 51 , संगिनी जु

!! प्रेम !!

श्रीवृंदावन में दसों दिशाओं में प्रेम का अद्भुत पसारा ऐसा जैसे वहाँ प्राकृतिक पवन नहीं परस्पर प्रेमरत श्वासों से महकी मधुर ब्यार तरंगायित होती है।जिसकी मधुर रस झन्कार एक से दूसरे हृदय में प्रेम स्वरूप उतरती और प्रेमपगी ही रखती प्रत्येक हृदय को रसस्कित। प्रेममयी अवनि में प्रेम की सरसर् सरसती तरंगें जो प्रियालाल जु के चरणकमलों से प्रेम रस पाती और उड़ लगती हर लता पत्र से व समाती एक एक हृदय में।प्रियालाल जु का परस्पर प्रेम जागतिक प्रेम नहीं जिससे उद्गम होता प्रेम का ही जो रज कणों को प्रेम से पराग बनाता और पराग का मधुर प्रेम मिलन पवन व सूर्य की रश्मियों से मकरंद बन अनवरत झड़ता रहता।जैसे प्रेम स्वरूप दो देह एक प्राण प्रियालाल जु रूपी वृक्ष से अद्भुत प्रेम पूरित सखियों का अवतरण लताओं तनों रूप होता और उन तनों लताओं पर लगते प्रेम पत्र और प्रेम पुष्प जिनसे पराग कण झड़ते प्रेम मकरंद को।प्रेम मकरंद से सने रस की बरसात सब मिल जब करते तो सम्माहित होते श्रीयुगल चरणों में और वही वही रस झन्कारें उठती मिलती धरा धाम की दसों दिशाओं में बहती अति मधुर प्रेम रसीली पवन सम।रजरानी में प्रियालाल जु की चरणथाप व रसस्कित पवन की मंद कभी तेज बहती रस हिलोरें यमुना जु में जल को जल नहीं अपितु प्रेम रस का रूप देतीं।इन अनोखे प्रेम भावों से सनी प्रेम की झिलमिलाती वहीं परस्पर टकराती रस झन्कारें छिन छिन धाम में श्वास लेने वाले हर जीव को प्रेम ही से पोषित करती और वही सुगम परस्पर प्रेम प्रफुल्लित झन्कृत हो बहता कण कण से।जहाँ की पवन रज और जल से प्रेम ही सींचित होता प्रेम ही अंकुरित हो पुष्प वल्लरी और परस्पर प्रेम ही का फल उपजता जो प्रेम प्रसाद स्वरूप ही पाया व ग्रहण किया जाता है।ऐसे रस को ग्रहण करने से प्रेम ही निरंतर बहता रस झन्कार बन।
हे प्रिया हे प्रियतम !
इन सुकोमलतम रस झन्कारों में
पोषित होता परस्पर युगल प्रेम और उस प्रेम से ही
अंकुरित प्रज्वलित प्रत्येक हृदय
अद्भुत रस संचार करता रस बनूं
तुम जो कह दो तो
प्रेम बन आसमान से धरा तक
चहुं ओर प्रेम प्रसार करती
छूकर तुम श्रीयुगल चरणों को
रस झन्कृत होती रहूँ !!

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