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स्वामिनी नही , किंकरी ... मृदुला

श्री राधा
सब कहते स्वामिनि देख देख निज दृष्टि से
मैं कैसे  बतलाऊँ मैं दासी निज प्रियतम की

श्री प्रिया हृदय की गूढ़ भाव झांकि

स्वामिनी स्वामिनी स्वामिनि .....प्रियतम हृदय से अनवरत उठती यह पुकार आज निकुंज रस भवन में प्रियतम सेवा आकुल प्रियतम प्रतीक्षारत श्री प्रिया को भाव की एक गहन तरंग में बहाये लिये चली है ॥ नेत्र मुदित हो गये हैं भीतर प्रियतम से मान धारण कर रूठ गयीं हैं ॥मना रहे हैं रसिकेश्वर , स्वामिनी जू मान जाओ न तनिक सा देखो न इधर नेक सो कृपा दृष्टि तो फेरो या दीन पे । का भूल भयो है स्वामिनी दासन ते । पुनः पुनः चरणन सो कर पल्लव लगाय को प्रयास करें पर भयवश छू नाय पा रहे मानिनी के अति सुकोमल कमल पग ॥ हिय अकुलाय रह्यो और बार बार मुख ते निकस रह्यो स्वामिनी जू ॥ सब सखियन कू दीनता से निहार नेत्रों से ही याचना कर रहे पर सखियाँ भी चित्र लिखित सी ठाढी भयीं है कि सहसा क्या भया है लली को ॥ अभी तक तो प्रफुल्लित कुमुदिनी सी प्रियतम तो मकरंद रसपान कराने को निज सुगंध प्रसार कर रही थी छन भर माहि कैसै निज सुकुमार रस पल्लवों को समेट मौन हो गयी है ॥ बडी देर भयो है लाल जू थकित से होने लगें हैं कि प्यारी काह  भयो है ॥ प्यारी ...आह प्यारी ये संबोधन सुनत ही सुंदर सलोने मुख कमल को तनिक सा ऊपर करो लली ने तो लाल जू ने देख्यो कि विशाल कमल दल लोचनों में दो अश्रु मोती चमक रहे हैं ॥ हृदय उमड आया रसधाम का ॥।बडे लाड से चिबुक उठा  गाढ़ प्रेम ते पूछ्यो प्यारी जू कहा भयो या प्रेम के सरस कुसुमों में आज ओस की बूंदों जैसै कण काहे हैं ॥ नेत्र पलक उठा प्रेममय रोष छलकाती चितवन से पिय  की ओर निरख और दो रस झारियों से मानो मधु झर उठा .....॥ स्वामिनी क्यो पुकारा मोहे ॥ तो क्या तुम स्वामिनी नहीं मेरी ॥ फिर वही ....कह मुख फेर लीना ॥ प्यारे के प्राण ही अकुला उठे ॥ फिर निज प्रिया की मनोभावना जान बोले प्यारी नेक सो इधर तो देखो ॥ प्रियतम मुख से प्यारी सुन प्रिया का मान तत्क्षण ही तिरोहित हो गया और मुस्कुरा कर रसदान करने लगीं निज प्राण निकेत को ॥ समस्त सखियाँ यह देख रस में डूब हर्षित हो दो रस कमलों को रसपान करन हेतु एकांत प्रदान कर वहाँ से चली गयीं ॥ दो रस प्रसून रस निमग्न हो रहें हैं सहसा प्रियतम के हृदय में जिज्ञासा कि क्या हुआ था आज प्रिय क्यो इतनी मुरझायी थी मेरी कमलिनी ॥प्रियतम के हृदय से लगे लगे ही प्रिया भाव में उत्तर दे रहीं हैं ॥ श्री प्रिया का उत्तर प्रेम को सार है ॥ सुने हम कि क्या कह रहीं वे ॥
प्यारे सब मोहे तुम्हारी स्वामिनी समझते कहते भी पर तुम तुम तो जानते न कि स्वामिनी ना किंकरी हूँ तुम्हारी ॥ तुम्हारे चरणों कि तुच्छ सी दासी ॥प्रियतम तुम्हारी सेवा ही जीवन स्वरूप मेरा ॥ तुम्हारी इच्छा ही सार तत्व मेरा प्यारे ॥ सदा सोचती कि क्या करुँ जो तुम्हें सुख हो ॥ पर फिर भी तनिक सुख न दे पाती ॥ पिय का सुख ही तो सेवा है न ॥ मम् रोम रोम निर्मित ही तुम्हारी इच्छानुसार हो सदा बस यही कामना नित्य ॥ ये श्वासें भी तुम्हारे मन की गति से चलें सदा यही प्रार्थना मेरी ॥ तुम मोहे स्वामिनि कह लजाते प्राण वल्लभ ॥ पर तुम प्रसन्न होते कहकर तो सुनती यही ॥ पर देखते ही देखते दूसरी भाव तरंग प्रवाहित होने लगी अब ॥ जो तुम्हे प्रसन्न करे सो कहो ॥ हाय मेरो ही दोष॥ देखो न तुम्हें सुख स्वामिनि कहनें में तो क्यों रोकूँ तुम्हें ॥कहो न प्यारे वही कहो जिसमें तुम्हें सुख मम् प्राणकिशोर ॥ सेविका हूँ तुम्हारी प्यारे । सेवा का स्वरूप सेव्य का सुख ही है न तो कैसै वंचित करुँ तुम्हें तुम्हारे सुख से प्यारे ॥ जो चाहे पुकारो जो चाहे करो मेरे प्राणधन ॥हाय क्यों सताया तुम्हें कैसै पूर्ति करुँ इस भूल की ॥ निज प्रिया की मन में विलस रहीं नित नवीन भाव तरंगों पर प्रियतम बार बार बलिहार हो रहे ॥रीझ रीझ निज प्रिया की भाव रस तरंगों के आस्वादन करने हेतु रसोत्सुक हो प्यारी रस सिंधु में डूबने लगे हैं कि कैसै प्यारी को रसार्णव कर यह प्रसंग विस्मृत करा दूँ ॥ आह मेरे कारण कितना कष्ट पा रही मेरी प्रिया ॥ निज अधर पल्लवों से प्यारी के मुदित नेत्रों का रसपान कर प्रिया हृदय में रस वर्षण कर रहे प्रिया प्रेम बांवरे भृमर प्रियतम रसशेखर .....॥

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