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र से रस , 46, संगिनी जु

!! आश्रित अनन्याश्रित !!

रूप अतिरूप अनुरूप सदा प्रेममयी प्रियाप्रियतम जु के आश्रित रहने का सुख और अनन्याश्रित में अति गहन आस्था और विश्वास जैसे जीवन को उन्मुक्त जीने की एक रस झन्कार।पूर्ण रस में प्रेम की गहनतम ऊँचाईओं में प्रेमास्पद के आधीन हो आश्रित होना एक विचित्र दशा जहाँ प्रेमी कठपुतली सा होते हुए भी तन्मय सदा रहता है कि जिस के वह आश्रय में है वहाँ सब उन्हीं का तो है।सकामता से प्रिया जु के आश्रित प्रियतम और प्रियतम जु के आश्रित प्रिया जु स्वयं को भूल जाते हैं।वहाँ केवल तुम ही तुम बचता है।जैसे खूंटे से बंधी कजरी श्रीयुगल रस में अनन्याश्रित भी रसमग्न है और जब जैसे जहाँ प्रियालाल जु सुखरूप ही भाव अनुदान करती है ऐसे ही धराधाम पर कण कण जीव पक्षी और यहाँ तक कि गोपियों का रोम रोम व रसिकों के रस में पगे लीला चिंतन सब आश्रित हैं सुखरूप प्रियालाल जु के और प्रियालाल जु आश्रित हैं इन सबके तत्सुख रूप रस के।सूर्य चंद्र पवन नीर और ऋतुएँ सब रस तन्मय युगल संग।जैसा जब उन्हें सुख अनुरूप हो सब वैसे ही अनन्याश्रित हुए अधीनता में भी स्वरस को युगल हेतु अर्पित करते रहते हैं।प्रिया जु की रूपमाधुरी उनकी रसस्कित भाव भंगिमाएँ प्रियतम आश्रित तरंगायित एक एक अंग व अंगकांति का संवर्धन करतीं जिससे प्रियतम को सुख मिले।जहाँ प्रियतम की दृष्टि पड़े वही अंग रसमय कमनिय होता और वहीं प्रियतम डूबते भी।ऐसे ही प्रियतम की लावण्यता मधुरता प्रिया जु के आश्रित रहती सदा।उनके रोम रोम का आश्रय लेता प्रिया जु का अंनत रस जो सदैव बहता प्रियतम के सुखरूप और परस्पर रस झन्कृत रखता कि कब किस समय किसे कैसे रस की आकांक्षा है।अनन्याश्रित में आश्रय केवल प्रेम रस।
हे प्रिया हे प्रियतम !
मुझे इन अनुरूप
रस सरगमों में
सदा थिर 'र' सरगम कर दो
तुम जो कह दो तो
रस झन्कार बन
सदा आश्रित हो कर
कभी नाचूं गाऊँ
तो कभी मौन रस
सुखरूप तरंग बन
तुम्हारे आश्रित रहूँ  !!

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