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क्या मैं बावरी हूँ ??

क्या मैं बावरी हूँ?


चितचोर!
तुम गये तो साथ-ही-साथ
अपना प्रेम भी क्यों नहीं लेते गये?
उसे हमें जलाने के लिये क्यों छोड़ गये?
ले गये हृदय और दे गये पीड़ा,
बड़े चतुर निकले।
मनमोहन!
यदि हमारा मन हमारे पास होता
तो हम उसे किसी और काम में लाग देतीं,
किन्तु हा निष्ठुर!
तुमने हमें इस योग्य भी नहीं रक्खा।
जाने के कुछ दिन पहले तुमने रार कर ली होती
झगड़ा कर लिया होता,
एक-दूसरे से रूठ गये होते,
तो अपना-अपना हृदय लौटा लेते।
किन्तु यह सब तुम किसलिये करते,
तुमने हृदय दिया होता तब न?
छली कहीं के!
जाने के एक दिन पहले तक बड़े आनन्द से
साथ नाचे-कूदे,
मानो जीवनभर ऐसा ही करना है,
और अचानक दूसरे दिन
क्रूर अक्रूर के साथ रथ में बैठकर चल दिये।
मुख पर तनिक भी उदासी नहीं,
तनिक भी चिन्ता नहीं।
हम रोती-बिलबिलाती रह गयीं,
आप रथ से न उतरे,
रथपर से ही समझा-बुझा दिया।
यही तुम्हारा प्रेम था?
सच कहती हूँ कन्हैया!
अब तुम मिलो तो तुम्हें जी भरकर कोसूँ,
तुम्हारी मुरली तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दूँ।
तुम्हारी ओर ताकूँ भी नहीं,
तुम मनाते-मनाते हार जाओ,
पैर पकड़कर बार-बार क्षमा माँगो,
तब कहीं बोलूँ।
मगर तुम तो आते ही नहीं,
हाय राम! क्या करूँ?
आने का नाम भी नहीं लेते।
अब आ जाओ माधव!
बहुत दिन हो गये,
प्राण निकलने पर ही आये तो क्या आये।
अच्छा डरो मत,
मैं कुछ न कहूँगी।
हा, प्यारे!
मैं जो कह गयी थी,
क्या तुम्हें उसपर विश्वास हो गया?
जब तुम तिरछे खड़े होकर तनिक मुस्करा दोगे,
तब क्या मुझसे रूठा जायगा?
तुम्हारे कोमल चरणों का स्पर्श अबतक नहीं भूलता,
तुम्हारे आने पर उस आनन्द को पाने के लिये
जी तड़प उठेगा।
इतना अवकाश ही तुम्हें कब मिलेगा कि
तुम मेरे पैर पड़ो
मैं तो तुम्हें देखते ही स्वयं तुम्हारे चरणों पर गिर पडूँगी।
क्षमा कर दो श्याम!
मैं तो तुम्हारे चरणों की दासी हूँ।
अब दया करो,
किन्तु तुममे दया ही होती तो जाते क्यों?
मथुरा में कौन-सा ऐसा बड़ा काम था,
अपने सुख के लिये ही तो गये हो।
तुम्हें क्या पता कि यहाँ हमारी क्या दशा है।
घर में सास जी रोज खीझती हैं,
फिर भी जी नहीं मानता,
जंगलों में भटकने चली आती हूँ,
जैसे तुम यहाँ बैठे ही हो।
जो राजसिंहासन पर बैठकर आनन्द से दिन काटता हो,
जिसे और किसी का ध्यान न आता हो,
उसकी याद में घुलना सरासर पागलपन है।
कितनी बार मैंने निश्चय किया कि
तुम्हारी परछांइ की भी बात न सोचूँगी,
किन्तु पता नहीं मैं कब सोचना आरम्भ कर देती हूँ।
तो क्या सचमुच मैं बावरी हो गयी?
ओ करील के वृक्षों!
तुम बताओ,
क्या मैं बावरी हूँ?
ओ नाचने वाले मोर!
तू ही बता,
क्या मैं बावरी हूँ?
सुन्दर पक्षियों!
तुम्हीं कुछ कहो,
क्या मैं बावरी हूँ?
अरी रासस्थली!
तुझे तो चुप नहीं रहना चाहिये,
क्या मैं बावरी हूँ?
ओ ऊँचे उठे हुए महान् टीले!
तू बता,
क्या मैं बा...................
(दौड़ती हुई ठोकर खाकर गिर पड़ती है और अचेत हो जाती है।)
बावरी गोपी प्रेम भिखारी पुस्तिका से

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