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एक दिना मणि-खम्भ माहिं मनमोहन ने निज रूप निहारो।
आपुहि मुग्ध भये निज छबि पै, को यह कोटि कामसों न्यारो॥
कबहुँ न ऐसो रूप हम देख्यौ जीवन माहिं।
कोटि काम की कान्ति हूँ याके पटतर नाहिं॥
याकी रूपरासि में फँसिके होत न मो मनको निस्तारो॥
कहा करों कैसे करों, मो मन अति अकुलात।
याकी छबि में उरझिके सुरझन पुनि न सुहात॥
निरखत ही नित रहों निरन्तर, कबहुँ न अन्तर होय हमारो॥
प्रिया-भाव निज में भयो, निजता भूले स्याम।
‘हा प्रीतम! हा प्रानधन! कहि-कहि टेरहिं नाम॥
‘आपुहिं निरखि आपुकों भूले अहो! प्रीति को पंथहि न्यारो॥
यह रति-रस अति ही अमल, कापै वरन्यौ जाय।
जाहि मिलै सोई छकै, ताहि न और सुहाय॥
याही रस में मगन होत सो प्रीतम को प्रानहुँ ते प्यारो॥
🍁मणि-खम्भ में निज रूप निरखते बाल-गोपाल, ख़ुद पर यक़ीं नहीं कर रहे की क्या, कोई हमसे भी सुंदर हो सकता है भला??? कोटि-कोटि चंद्र-सूर्य के प्रकाश को अपने प्रकाश में समाने वाला, जैसे आज प्रथम बार अपनी छवि देखा हो।
सत्य ही तो है। समस्त ब्रह्मांड को निरखने वाला, क्या कभी अपनी ओर देखा होगा, की वो कैसा दिखता है?
और जब निहारा स्वयं को नंदरानी के आँगन में, हाऽऽऽय!! स्वयं के सौंदर्य पर स्वयं को यक़ीन नहीं आ रहा!!! क्या मैं इतना सुंदर हूँ???
🍁सुन्दरता ख़ुद से ही शरमा जाए�यदि वाणी भी मिल जाए दर्पण को !🍁
खुबसूरत है हर फूल मगर उसका
कब मोल चुका पाया है सब मधुबन ?
जब प्रेम समर्पण देता है अपना
सौन्दर्य तभी करता है निज दर्शन,
अर्पण है सृजन और रुपान्तर भी,
पर अन्तर-योग बिना है नश्वर भी,
सच कहती हूँ हर मूरत बोल उठे
दो अश्रु हृदय दे दे यदि पाहन को !
🍁सुन्दरता ख़ुद से ही शरमा जाए
यदि वाणी भी मिल जाए दर्पण को !🍁
हाय रे कन्हैया!
हर दर्पन तेरा दर्पन है, हर चितवन तेरी चितवन है,
मैं किसी नयन का नीर बनूँ, तुझको ही अर्घ्य चढ़ाती हूँ !
हर देहरी तेरी देहरी है, हर आँगन तेरा आँगन है,
मैं हर्षित हो तुमको ही शीश नवाती हूँ!
मैं किसी नयन का नीर बनूँ, तुझको ही अर्ध्य चढ़ाती हूँ!!
सावन का स्वर रिमझिम-रिमझिम,नपुर बजी रुनझुन-रुनझुन,
हरि जनम की कुनुनमुनुन, खामोश प्रेम की गुपुनचुपुन, नटखट बचपन की चलाचली, ब्रज मंडल में बजती शरगम,
मोहन का मधुर-मधुर क्रन्दन, सुख का मीठा-मीठा गुंजन,
हर वाणी तेरी वाणी है, हर वीणा तेरी वीणा है,
मैं कोई छेड़ूँ तान, तुझे ही बस आवाज़ लगाती हूँ !
हर दर्पन तेरा दर्पन है !!
हर दर्पन तेरा दर्पन है, हर चितवन तेरी चितवन है,
मैं किसी नयन का नीर बनूँ, तुझको ही अर्घ्य चढ़ाती हूँ !
हर देहरी तेरी देहरी है, हर आँगन तेरा आँगन है,
मैं हर्षित हो तुमको ही शीश नवाती हूँ!
मैं किसी नयन का नीर बनूँ, तुझको ही अर्ध्य चढ़ाती हूँ!!
सुन्दरता ख़ुद से ही शरमा जाए
यदि वाणी भी मिल जाए दर्पण को !
पर ये क्या😳 दर्पण में किसका सौंदर्य अचानक उभर आया, कहीं प्रिया ज़ू तो नहीं जो मोहन के अधरों पर मोहिनी मुस्कान उभर आयी और सोंच रहे...व्यर्थ ही प्रसन्न हुआ तो प्रियाज़ू का सौंदर्य मेरे दर्पण शोभा बढ़ा रहा।
कैसी अनोखी प्रीत की रीत?
मोहन!!!!
आए ही प्रेम करने।
मणि-खम्भ लीला तो मात्र बहाना है!
दर्पण में हम प्रियाओं को निरख लिया आते ही
उन्हें तो बस प्रेम सिखाना है!!!
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