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वेणु रस लीला आँचल सखी जु

कुंज मे एक लंबे,घने छायादार वृक्ष के नीचे एक चबूतरे पर श्रीप्रियाजु बैठी है।
यही चबूतरेे के नीचे एक सखी वीणा ले कुछ गा रही है।
श्यामसुन्दर की कोई लीला ही गा रही....
श्यामाजु बडे ध्यान से एक एक शब्द सुन रही....
लग रहा उस लीला मे ही पहुच गयी है।
.....तभी,अचानक......दोनो हाथो से मुख को ढककर जोरो से हँसने लगी.....
उनके खिलखिलाने की आवाज संगीत मे मिलकर एक नयी ही लय बनायी....
वही जरा दूर पर ही एक वृक्ष के पीछे खडे श्यामसुन्दर अपनी प्राणप्रिया को यू हँसते देख ऐसे आनंद मे खोये की इस वृक्ष को ही आलिंगन मे भर लिये....
भूल गये सब की यह वृक्ष है.....
....की मै छिपा हुआ था।
और श्यामाजु देख ली श्यामसुन्दर को....
वह धीरे धीरे इनके निकट गयी।
श्यामा ने जब श्यामसुन्दर को स्पर्श कर इनका नाम पुकारा...."कान्हा"  तब चेत हुआ की यह वृक्ष है....
श्यामाजु शयामसुन्दर के कंधे पर हाथ रख खडी है।
कुछ देर बाद श्यामाजु
ने श्यामसुन्दर की कमर से बाँसुरी निकाली....अपनी दोनो हथेलयो पर रख इनके आगे बढा दी.....
श्यामसुन्दर ने मुस्कुराकर इसे अपने अधरो से लगा बजाने लगे....
सखी का पद पूर्ण हो चुका है,अब केवल बंशी बज रही है....सब खो गयी श्यामाजु श्यामसुन्दर पीठ से पीठ लगा नयन बंद किये खडे है....
कुछ देर बाद यू ही बंशी बजाते हुए युगल उसी चबूतरे पर बैठ गये.....
कुछ ओर भाव हुआ और श्रीजु ने कुछ शीघ्रता व आकुलता से बंशी को श्यामसुन्दर के अधरो से हटा दिया.....
श्यामसुन्दर ने नयन खोले....श्यामाश्याम अपलक एक दूजे के नयनो मे देखे जा रहे.....दोनो के कर बीच मेे रखी बंशी को पकडे हुए है....
कही कोई शब्द नही.....
और सब सखियाँ यू स्तंभित हुए युगल की प्रेम झाँकी को अपने अपने स्थान से लाड लडा रही है......

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