Skip to main content

श्यामसुन्दर का कुर्ता और ललिता सखी लीला , आँचल सखी जु

रात्री का समय हो रहा। कई सारी सखियाँ एक कक्ष मे नीचे ही बैठी हुई युगल के वस्त्रो पर मोती टाँक रही है।
तभी श्यामाजु भी कक्ष मे प्रवेश करती है,संग मे ललिता सखी व कुछ ओर सखियाँ है।
सबकी ओर देखती हुई श्यामा एक सखी के पास रूक गयी।
यह सखी श्यामसुन्दर के घेरदार कुर्ते को लिये हुए है।
श्यामाजु सखी से कुर्ता ले लेती है।
इसकी दोनो बाजू पकड सामने की ओर कर देखती हुई शैय्या तक आयी....सब सखिया भी पीछे पीछे।
अब शैय्या पर बैठ कुर्ते को पूरी तरह खोलकर बिछा दी।
और कितने प्रेम से इस कुर्ते को निहार रही है।दोनो बाजू पकड रखी है अपने हाथो मे......
सखियाँ सोची,शायद श्यामाजु कुर्ते को श्यामसुन्दर समझ बैठी है।
तब ललिता सखी कुछ निकट आ प्रियाजु से बडे लाड से पूछती है।
मेरी बाँवरी सखी,ऐसे इस कुर्ते को क्या निहार रही है......
श्यामाजु वही दृष्टि रखे हुए उत्तर देती है---- ललिते,सोच रही हू....जो इस कुर्ते मे श्यामसुन्दर होते तो......
ललिता सखी हसकर कहती है...अच्छा!यदि श्यामसुन्दर होते तो.....
कहकर ललिता सखी कुर्ते को लेकर एक ओर चली गयी।
और कुछ देर बाद उसी कुर्ते को पहनकर श्यामजु के सामने आ खडी हो गयी.....
ललिता सखी को यू देख श्यामा हस देती है।फिर उठकर पास जाकर उनके दोनो हाथ पकड कहती है...
आह! मेरे प्रियतम....मस्कुराती हुयी लाकर शैय्या पर बैठा दी।
और बस इतनी ही देर मे भूल गयी की ये सखी है।
बस श्यामसुन्दर ही समझ ली ललिता सखी को।
कुछ ही देर मे श्यामसुन्दर बनी ललिता सखी को लेकर बाहर उपवन मे चल दी।
यहा आकर एक पत्थर के तख्त पर बैठा दी और स्वयं कुछ लेने गयी।
कुछ सखिया भी चली पीछे पीछे....
कुछ समय बाद प्रियाजु हाथ मे एक मोर पँख लिये आती है...
और आकर के ललिता सखी के केशो मे लगाती हुयी कह रही है....तुमने मोर पंख क्यू न लगाया था?
इतनी ही देर मे
दो सखियाँ श्यामसुन्दर को लेकर उपवन मे आयी।
दूर से ही सब देखकर कुछ देर तो श्यामसुन्दर भी अपनी प्रियतमा के प्रेम भाव का मुस्कुराते हुए आनंद लेते है....
फिर प्रियाजु का नाम पुकारते है....राधे...
सुनकर श्यामाजु का ध्यान इधर हुआ....
श्यामाजु बडे विस्मय से दोनो को देखती है।
तब श्यामसुन्दर इनके निकट आ स्पर्श करते है प्रियाजु को जिससे श्यामाजु शरमाकर ललिताजु का हाथ छोड श्यामसुन्दर मे सिमट सी जाती है.....
ललिता सखी हसते हुए कहती है---अच्छा किया श्यामसुन्दर जो तुम आ गये।
नही तो जाने क्या करती हमारी सखी...
इतना सुनकर श्यामाजु कुछ ओर सिमटकर श्यामसुन्दर से लिपट जाती है।

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात