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मकाँ तो खण्डहर सा हो चला , आँचल सखी जु

सुनो न....
मकां तो खंडहर सा हो चला
अजीब निगाहो से देख गुजरते है लोग
पर यहाँ की जमीं तो अब भी जवाँ है
खैर है किसी की नजर नही जाती उस तक
वो दबी सिमटी सी है न
वो अब भी मासूम सी कली है
किसी का हार होने की आरजू मे
किसी की पायल बनने की तडप मे
या कही कोने से निहारने को व्याकुल
इस मकां को गिरने मे कुछ ओर वक्त हो शायद
बचकर निकलते है लोग तो खंडहरो से
और तुम
तुम्है क्यू इससे मोहब्बत है
ओह
इस जमीं से ।
ये कहाँ जायेगी
तुम्हारी ही राह मे यही है कब से।
कई आशियाने बने इस पर
फिर उजडे
तुम यही बैठे रहे
कितनी प्रतिक्षा की न तुमने।
तुम्हारे बिन तुम तक आती भी कैसे।
तुम ही ले चलो
निभाती रहती जो तुम न कहतेे
पर अब नही होता
या तो अब होश न होया छिपा लो सबसे
एक बार तो मिल लो
एक बार.....

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