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कृष्ण जन्म के पद

जसुमति कक्ष सोहर-सुगंध महक रही।
पारलौकिक-दीप्तीमय, शुभ्र-कान्ति-दिव्य सुवासमयी।
सुषमा प्रस्फुटित 'मँजु' नैसर्गिक ज्योति, कण-कण छिटक रही।
मानों सुरलोक दामिनी अवनि-तिमिर हरनि, हर्षित दमक रही।
चकित,चितव सगरौ बृज,अद्भुत बालक,जे इहिं लोक कौ नहीं।
(डाॅ.मँजु गुप्ता)

प्रकट हु‌ए थे धराधाम में पूर्ण परात्पर श्रीभगवान।
परम दिव्य ऐश्वर्य-निकेतन,सुन्दरता-मधुरता-निधान॥
दुष्ट को निज धाम भेजकर, साधु-जनों का कर उद्धार।
किया धर्म का संस्थापन था, लेकर स्वयं दिव्य अवतार॥

वही पुण्य तिथि भाद्र-‌अष्टमी, कृष्णपक्ष मंगलमय आज।
सुरभित श्रद्धा-सुमन-राशि से सभी सजाकर मंगल साज॥
नन्दालय में आज महोत्सव वही हो रहा मधुर विशाल।
शीघ्र बुझा देगा जो भव-दावानल सहसा अति विकराल॥

हम भी सब मिल आज मनायें वही महोत्सव मंगलरूप।
भोगासक्ति-विनाशक, भव-बाधा-हर, दायक-प्रेम अनूप॥
प्रेम कृष्ण का, प्रेम कृष्ण में, स्वयं कृष्ण ही निर्मल प्रेम।
हमें मिले, बस, एकमात्र वह, वही हमारा योग-क्षेम॥

कृष्ण-नाम-गुण गा‌ओ अविरत प्रेमसहित नाचो तज लाज।
बनो कृष्णभक्त के भक्त के अनुगामी सहित समाज॥
मधुर मनोहर मंगलमय श्रीराधा-माधव का सब काल।
करते रहो स्मरण नित संतत, पल-पल होते रहो निहाल॥
(पद-रत्नाकर)

हरि अवतरे कारागार।
दिसि सकल भ‌इँ परम निरमल अभ्र सुषमा-सार।
लता बिटप सुपल्लवित पुष्पित नमत फल भार॥
सुखद मंद सुगंध सीतल बहत मलय बयार।
देवगन हरषत सुमन बरसत करत जयकार॥

बिनय करत बिरंचि नारद सिद्ध बिबिध प्रकार।
करत किंनर गान बहु गंधरब हरष अपार॥
संख-चक्र-गदा-नवांबुज लसत हैं भुज चार।
भृगुलता कौस्तुभ सुसोभित, कांति के आगार॥

नौमि नीरद नील नव तनु, गले मुकताहार।
पीत पट राजत, अलक लखि अलिहु करत पुकार॥
परम बिस्मित देखि दंपति छबिहिं अमित उदार।
निरखि सुंदरता अपरिमित लजत कोटिन मार॥

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