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प्रियादासी वरुण सखी का मिलन युगल संग

जब प्रियाजी प्रियतम सङ्ग कियो श्रीजमुना विहार             ये मेरो बड़ो सौभाग्य रहो जा लीलाके अवलोकन कौ ऋषि मुनि कल्प-कल्पान्तर तप करते भगवान् के आगमन की राह देखते सो मोहि जाहि जन्म में प्राप्त है गयो । यद्यपि मेरो सम्बन्ध श्रीप्रियाजी श्रीलालजी से जन्म-जन्मान्तर कौ है तथापि कठिन कलिकाल भूली बिसरी   संसार में रंगी पची है वे से देवदुर्लभ था ।                 शरीर चाहे  कहूँ पड़ो रहै , लेकिन चित्त प्रियाजी के चरणन में ही लगौ रहै । एक दिन दोपहरकी बेला में बरगद के नीचे बैठी याद कर रही श्रीराधावल्लभ युगल कौं । आँखें भी खुलीं भई थीं कोई समाधि लगाइवे तो आवै नाय मोहि । अचानक मोहि लगौ जैसे अर्धरात्रि है गयी । शरीरकी सुधि न रही शरीर तो एसो है गयो जैसे रुई होऊँ कोई बजन ही नाय रहौ मो में । काली रात्रि में सब वातावरण कालो कालो सो है रहो । पूर्ण चन्द्रमा उदय है रहे और तारोंने उन्हें घेर रखो चारो तरफ से । चन्द्रमाकी रौशनी जब नीचे पड़ी तो देखों मैं जमुनाजी के पुलिन पे हूँ और सुंदर ऊँचे ऊँचे वृक्षोंपर लताएँ लटक रहीं उनपर रङ्ग विरङ्गे पुष्प खिले हुए एसो तो मैं कबहुँ नाय देखौ । न ऐसे पुष्पके ऊँचे वृक्ष देखे कबहुँ न ऐसी लताएं ही । धरतीपे देखौ तो कोमल घास बिछ रही और छोटे छोटे पौधें पे पुष्प लगि रहे । फिर  सखियन के युथ के युथ देखे जो अलग अलग युथ बनाये आपस में चर्चा करि रही थीं । मैं तो अकेली बैठी रही बाहरकी ओर सकुचाती सी डरी सी सहमी सी कहीं इन पवित्र वृजांगनाओं में सम्मिलित होने के योग्य हूँ भी या नहीं । मैं तो स्वयं को पतित ही मानूँ । तभी नन्दनन्दन श्रीप्रियाजीके गले में हाथ डाले प्रकट भये जैसे पूर्ण चन्द्र अमावस की रात में उदय है गए होंय । दिव्य रूप प्रियाजी कौ नीले घेर दार वस्त्र पहने ऊपर से गुलाबी ओढ़नी ओढे श्रीजी पर मेरी नजर ही नाय टिक रही , उनके  रूप कौ प्रकाश से आँखें मिलाइवौ बहुत कठिन है गयो ।  फिर श्रीलालजी के रूप देखकर मैं स्तब्ध रह गयी । नीले नीले नीलमणि जैसे प्रकाशित है रहे  श्रीराधावल्लभजी ने मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल लम्बे लम्बे घुँघराले बाल ऊँचो कद मोहि सिर ऊँचो करके देखवे पड़ रहौ । श्रीप्रियाजीकी तरह नन्दनन्दनने भी नीले झंगोले से जैसे वस्त्र पहन रखे और घुटनों से नीचे लटकती कमलकी कई मालाएं उन्हें ढँक रही थीं ।  मैं समझ नाय पाइ रही मुंह निहारूँ या चरणन कों । स्तम्भित चित्रलिखी सी रह गयी मैं । मोसे एक अपराध है गयो मैंने श्रीप्रियाप्रियतमको अभिवादन भी नाय करौ चरणन की सेवा तो दूर की बात रही  😢😢😢   फिर स्वयं श्रीलालजी मेरे पास आये और मेरो हाथ पकड़ो लालजी ने और सङ्ग ले चले । श्रीलालजी के स्पर्शसे मैं जा शरीर जा दुनियाँ को भूल गयी और अब अपने नित्य स्वरूप को देख रही मैं जो एक निकुञ्जवासिन गोपी को है । अब मोहि एसो लगि रहो जैसे मेरो नित्य ही मिलन है रहौ होय मेरो कबहुँ वियोग ही नाय भयो । फिर लालजी जमुनाजी की ओर लै गए , श्रीगोविंदकी प्रिया जमुनाने मानो पूरा श्रृंगार किया हो प्रियतम नन्दनन्दन से मिलन के लिये देखौ तो जमुना जी काला जल ऊपर से चन्द्रमा की छाया पड़ रही तो आधी  रात में  जल में हिलोरें उठते दिख रहीं । चन्द्रमाकी रौशनीसे मानो जमुनाजी स्नान किया हो काले जल में नीले और लाल कमल खिल रहे और सुंदर रूप जमुना जी कौ पहले सुनौऊ नाय । फिर मेरो हाथ छोड़के  श्रीजीको हाथ पकड़ लियो लालजी ने और स्वयं जल में उतरे , हम सब सखि वृन्द भी जल में उतरे । श्रीजी और लालजी को एक मयूर आकृतिकी सुंदर नौका में बिठाया । कई सखियाँ मिलकर प्रियाप्रियतम पर मोर पंखके  बने पंखों से हवा करने लगे और कुछ सखि वृन्द जलके नीचे उतर के ही नामको चलाने लगी मैं भी आधे जल में डूबी नाव को हाथों से चलाने लगी । हाथ नाव चलाने का कार्य कर रहे थे क्योंकि किसी गोपी पतवार नहीं ली हाथोंसे ही सब नाम को आगे ढंकलतीं और हाथों से पतवार का काम कर रही थीं और नेत्र प्रियाप्रियतम को निहारने में ही लगी भईं थीं । एक पल को भी नेत्र हटते नहीं श्रीयुगल छवि से । ऐसे निहारते ही सारी रात निकल गयी और आकाश गुलाबी होने लगा तब ये लीला समाप्त भई । फिर अचानक सब आँखों से ओझल हो गया मैं रह गयी असहाय निराश वियोग में सन्तप्त कलियुगकी एक साधरण वियोगिनी ।  निकुञ्ज लीला कहने को कुछ घड़ी की ही रही हो किन्तु एसो लगे है जैसे न जाने कितने वर्षों से यही क्रम चला रहा । मैं नित्य संगिनी रही श्रीकृष्णकी । सोचती कृष्ण मिलेंगे तो ये करूंगी वो करूंगी लेकिन जब कृष्ण मिले तो सुधि ही न रही मैं कौन हूँ क्या करना स्वयं ही होने लगा जो भी हो रहा था निकुञ्ज में ।                            - प्रियादासी

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