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लहूँ के लहू , तृषित

जब से देख त हरि कु अँखियाँ
अब कछु निरखे प्यासी अँखियाँ

श्वासन संग नातो छुटयो
काल को जोर भी अब रुठयो
तू तोड़े धागों कब , दे मोहे तोडूं अब
हाय्य , निकलत प्राण फिर निकले नाहीँ

पिय नाम को मनको पोवत रहूँ
अब माला छूटे प्राणन लें भी टूटे

रोम रोम लहू घुल रह्यो
देखत न बने अपनों लहू
रोम रोम पिय रस बरस रह्यो
पिबत न बने अधर मिले द्वय
अब पिय घुली ग्यो लहू को लहू हो ग्यो
प्राणन को प्राण मेरो लहुँ हुयो
लहू रहत तब रहूँ , लहू बहत तब मरूँ
ऐसो हरि समाय रहे , मो में बसत मोहे खिजाय रहे
भूली बिसरी जिनको रहूँ , वें है तब हि जीवत रहूँ
पगली भव-वन फिरूं निधि बिन सूखो वन रहूँ
"तृषित"
जब से देखत हरि को अँखियाँ
अब कछु देखत बने न इन अँखियाँ

श्वासन संग सम्बन्ध नाहीं
कल छूटे भली हो अब छूटे
नाम को मनको पोवत रहूँ
अब छूटे  प्राणन लें ही टूटे

रोम रोम लहू घुल रह्यो
देखत न बने अपनों लहू
रोम रोम पिय रस बरस रह्यो
पिबत न बने अधर मिले द्वय
अब पिय घुली ग्यो लहू को लहू हो ग्यो
लहू रहत तब रहूँ , लहू बहत तब मरूँ
ऐसो हरि समाय रहे , मो में बसत मोहे खिजाय रहे
भूली बिसरी जिनको रहूँ , वें है तब हि जीवत रहूँ

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