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वर्षा ऋतू रस मन्जू दीदी और दिनेश जी द्वारा

अदभुद वर्षा आई देखो माई |
स्याम सरूप घटा गहराई प्रिय चपला चमकाई ||
हित की सखी उज्वल रस भीनी बग पंकती छबी छाई |
नुपूर शब्द पपीहा दादुर कोकिल मोर कुहुकाई ||
हरिवंशी धुनि मनो गरजत घन लरजत धन अकुलाई |
डरपी जानी प्रिया प्रीतम ने पुनि -पुनि ले उर लाई ||
हलत हिंडोर झकोर पवन की करत कलोल मन भाई |
जय श्रीहित नवनीत परम रस वरसत निरखत नयन सिराई || }

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देखु सखि, द्वै सावन सँग भाय।
सावन महँ जनु तनु धरि सावन,रस बरसावन आय।
इत सावन घनश्याम उतै जनु, तनु घनश्याम जनाय।
इत सावन दामिनि दमकनि उत्, पीत-वसन फहराय।
इत सावन नभ इंद्र-धनुष उत, मणिगण मुकुट लखाय।
इत सावन बरसावत जल उत, आनँद-जल बरसाय।
इत सावन तृण हरित अवनि उत,काछनि हरित सुहाय।
इत सावन दादुर धुनि उत पग,  नूपुर शब्द सुनाय।
दोउ "कृपालु" मनभावन सावन, हिलि मिलि भल छवि छाय।।
      भावार्थ - अरी सखी ! देख, दो सावन एक साथ सुशोभित हो रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है की एक सावन के महीने में दूसरा सावन मूर्तिमान बनकर आनन्द रस बरसाने आया है।(एक सावन से अभिप्राय सावन मास से है एवं दूसरे सावन से अभिप्राय श्यामसुन्दर से है) इधर सावन मास में काले बादल हैं और उधर काले बादलों के समान श्यामसुन्दर का शरीर है। इधर सावन मास में  बिजली चमक रही है उधर श्यामसुन्दर का पीताम्वर फहरा रहा है। इधर सावन मास में आकाश में इंद्र धनुष चमक रहा है उधर श्यामसुन्दर के मुकुट में रंग-बिरंगी मणियाँ चमक रही हैं। इधर सावन मास में पार्थिव जल बरस रहा है उधर श्यामसुन्दर के द्वारा दिव्यानंद जल बरस रहा है। इधर सावन मास में पृथ्वी पर हरी घास सुशोभित है उधर श्यामसुन्दर की कमर में हरी काछनी सुशोभित है। इधर सावन मास में मेढकों की ध्वनि हो रही है उधर श्यामसुन्दर के चरणों में शोभित नूपुर की मधुर ध्वनि है इस प्रकार चेतन एवं अचेतन दोनों सावन मिलकर अनिर्वचनीय शोभा पा रहे हैं ।
    ......... प्रेम रस मदिरा (लीला माधुरी)
           जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
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बरसत आनँद-रस कौ मेह।
स्यामा-स्याम दुहुन कौ बिगसित दिव्य मधुर रस नेह॥
सरस रहत सुचि दैन्य-भाव तैं कबहुँ न उपजत तेह।
निजसुख-त्याग परस्पर के हित, सब सुख साधन येह॥
भाव रहत नित बस्यौ रसालय, रस नित भाव-सुगेह।
नित नव-नव आनंद उदय, नहिं रहत नैक दुख-खेह॥
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सुनो हो मैं हरि आवन की अवाज।
महल चढ़-चढ़ जोऊँ मेरी सजनी,
कब आवै महाराज ।
सुनो हो मैं हरि आवन की अवाज॥
दादर मोर पपइया बोलै ,कोयल मधुरे साज ।
उमँग्यो इंद्र चहूँ दिसि बरसै, दामणि छोड़ी लाज ॥
धरती रूप नवा-नवा धरिया, इंद्र मिलण के काज।
मीरा के प्रभु हरि अबिनासी, बेग मिलो सिरताज॥
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आज तो राठौड़ीजी महलाँ रंग छायो।
आज तो मेड़तणीजी के महलाँ रंग छायो।
कोटिक भानु हुवौ प्रकाश जाणे के गिरधर आया॥
सुर नर मुनिजन ध्यान धरत हैं वेद पुराणन गाया
मीरा के प्रभु गिरधर नागर घर बैठयौं पिय पाया॥
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हे राधे हे वृषभानु लली तुम बिन जीवन क्या जीवन है।
जिस जीवन की तुम जीवन हो वो जीवन ही वृन्दावन है।
हे परमेश्वरी हे सर्वेश्वरी तू ब्रजेश्वरी आनंदघन है।
हे कृपानिधे हे करुणानिधि जग जीवन की जीवन धन है।
दुर्गमगति जो योगेन्द्रों को वही दुर्लभ ब्रह्म चरण दाबे।
रसकामधेनु तेरी चरण धूल हर रोम लोक प्रगटावन है।
अनगिनत सूर्य की ज्योति पुञ्जपद नखी प्रवाह से लगती है।
धूमिल होते शशि कोटि कोटि दिव्यातिदिव्य दिव्यानन है।
श्रुति वेद शास्त्र सब तंत्र मन्त्र गूंजे नुपुर झनकारो में।
वर मांगे उमा, रमा, अम्बे, तू अखिल लोक चूड़ामणि है।
वृजप्रेम सिंधु की लहरों में तेरी लीला रस अरविन्द खिले।
मकरंद भक्तिरस जहां पिए सोई भ्रमर कुञ्ज वृन्दावन है।
जहां नाम तेरे की रसधारा दृग अश्रु भरे स्वर से निकले।
उस धारा में ध्वनि मुरली की और मुरलीधर का दर्शन है।
राधा माधव माधव राधा तुम दोनों में कोई भेद नही।
तुमको जो भिन्न कहे जग में कोई ग्रन्थ,शास्त्र,श्रुति वेद नही।
जहां नाम, रूप ,लीला छवि रस चिंतन गुणगान में मन झूमें।
उस रस में तू रासेश्वरी है रसिकेश्वर और निधिवन है।
जब आर्त ह्रदय यह कह निकले वृषभानु ललि मैं तेरी हूँ।
उस स्वर की पदरज सीस चढ़े तब लालन के संग गोचन है।
जिस जीवन की तुम जीवन हो वो जीवन ही संजीवन है।
अराध्य तुम,आराध्या तुम ही आराधक और आराधन है।

[8/3, 15:28] सत्यजीत तृषित: सुमधुर स्मृति में होता नित ही मधुर मिलन-दर्शन-सुस्पर्श।
मधुर-मनोहर चलती चर्चा, चारु-मधुर उपजाती हर्ष॥
मधुर भाव, शुचि चाव मधुर, माधुर्य नित्य पाता उत्कर्ष।
मधुर नित्य निर्मल रसमय में रहता नहीं अमर्ष-विमर्श॥

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"जो रसना रस ना बिलसै,
         तेविं बेहु सदा निज नाम उचारै।
मो कर नीकी करैं करनी,
          जु पै कुंज कुटीरन देहु बुहारन।
सिध्दि समृध्दि सबै रसखानि,
           लहौं ब्रज-रेनुका अंग सवारन।
खास निवास मिले जु पै तो,
वही कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन।
(रसख़ान)
भावार्थ : --
रसखान अपने आराध्य से विनती करते हैं कि मुझे सदा अपने नाम का स्मरण करने दो ताकि मेरी जिव्हा को रस मिले। मुझे अपने कुंज कुटीरों में झाडू लगा लेने दो ताकि मेरे हाथ सदा अच्छे कर्म कर सकें। ब्रज की धूल से अपना शरीर संवार कर मुझे आठों सिध्दियों का सुख लेने दो।और यदि निवास के लिये मुझे विशेष स्थान देना ही चाहते हो प्रभु तो यमुना किनारे कदम्ब की डालों से अच्छी जगह तो कोई हो ही नहीं, जहाँ आपने अनेकों लीलाएं रची हैं।
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राधा नहीं चाहतीं निज सुख निज प्रियतम से किसी प्रकार।
केवल प्रियतम के सुख से वे होतीं परम सुखी अविकार॥
केवल यही चाहतीं-प्रतिपल प्रियतम सुखी रहें अविराम।
पल-पल उनको सुखी देखना-करना-यही एक, बस, काम॥
भक्त-पराधीनता हीं उनका है निर्मल स्वभाव अभिराम।
राधा-पराधीन हो रहना लगता उन्हें अतुल सुखधाम॥
राधा नहीं चाहतीं लेकिन उनपर अपना ही अधिकार।
सभी प्राप्त हों प्रियतम-सुखको, करतीं यह अभिलाष उदार॥
मुक्तहस्त वे वितरण करतीं प्रियको, प्रिय-सुखको भर मोद।
सुखी करो सबको, नित प्रियसे कहतीं कर गभीर विनोद॥
मैं गुण-हीन, मलीन सर्वथा, क्यों मुझपर इतना व्यामोह।
मुझसे सभी अधिक सुन्दर, शुचि, मधुर, शील-सद्‌‌गुण-संदोह॥
प्रेम-रसास्वादन कर सबका, मुझे करो प्रिय! सुखका दान।
रससागर! नटनागर! प्रियतम! मेरे एकमात्र भगवान॥

रे मन अरू सब छांड़ि कै, जो अटकै इक ठौर।
वृन्दावन घन कुञ्ज में, जहाँ रसिक सिरमौर।

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बहुत दिवस बीते बिन देखे,
         अब वियोग कैसिहुँ नहिं सहिहै।
भानुकुँवरि नंदलाल बिना अलि,
         कोट जतन करि धीर न गहि है।
अति अकुलात उड़न को बैठो,
         कछुक दिना जो और न लहिहै।
ललित किशोरी तन पिंजरा तें,
                   पक्षी प्रान न रोके रहिहै।
😥😥😥

अब सखि! कहा लोक सों लीजै।
मनमोहन ने मोह्यौ यह मन, कैसे याहि विलग अब कीजै।
स्यामहि के रँग रँग्यौ सखी! यह, कैसे और रंग में भीजै।
होत न सेत अरुन चाहे यह मलि-मलि आपुहिं छीजै।
इन्द्रिन को राजा मन सजनी! मन तजि सो किमि जीजै।
मन के संग गयीं ते हूँ सब, उन बिनु अब कैसे का कीजै।
रोम-रोम में बस्यौ स्याम ही, भलै न कोऊ लोक पतीजै।
पय-पानी सम भये एक हम, कैसे हमहिं पृथक अब कीजै।
मैं तो सदा स्याम की सजनी! अपनी करि मोसों का लीजै।
बौरी कहो भलै भोरी कोउ, मोहिं न अब दूजी सिख दीजै।
जम को गम हूँ रह्यौ न उर में, परिजन के भयसों का छीजै।
प्रीति-पियूष पान कीन्हों तो अमर होय काको भय कीजै।

प्रिये! प्राण-प्रतिमे! मैं कब से आया बैठा तेरे पास।
कबसे तुझे निहार रहा हूँ, देख रहा शुचि प्रेमोच्छ्‌वास॥
धन्य पवित्र प्रेम यह तेरा, हूँ मैं धन्य, प्रेमका पात्र।
नित्यानन्द-विधायिनि मेरी, तू ही एक ह्लादिनी मात्र॥

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