*परमानन्ददास*
परमानंददास अष्टछाप के अत्यंत प्रतिभा संपन्न कवि थे। ये कन्नौज के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनके पिता बडे निर्धन थे। जनश्रुति है कि इनके जन्म के दिन किसी धनी सेठ ने इनके पिता को प्रचुर दान दिया जिससे उन्हें परम आनंद हुआ। इसी से उन्होंने अपने पुत्र का नाम परमानंद रख दिया। ये बालपन से ही भगवत् भक्त थे। श्री वल्लभाचार्य से स्वप्न में आदेश पाकर उनसे मिलने अरैल गए और उनके शिष्य बन गए। उन्होंने श्रीनाथजी की सेवा इन्हें सौंपी जिसे ये आजीवन करते रहे। ये कलाप्रेमी एवं स्वयं कुशल कलाकार थे। इनका पद-सौंदर्य तथा रचना-प्राचुर्र्य दोनों ही सराहनीय हैं। इनकी समस्त रचना 'परमानंद सागर में संग्रहित है। कहते हैं एक बार जन्माष्टमी पर आनंदमग्न होकर इन्होंने इतना नृत्य किया कि मुर्च्छित हो गए तथा वहीं शरीर छोड दिया।
बृंदावन क्यों न भए हम मोर।
करत निवास गोबरधन ऊपर, निरखत नंद किशोर।
क्यों न भये बंसी कुल सजनी, अधर पीवत घनघोर।
क्यों न भए गुंजा बन बेली, रहत स्याम जू की ओर॥
क्यों न भए मकराकृत कुण्डल, स्याम श्रवण झकझोर।
'परमानंद दास' को ठाकुर, गोपिन के चितचोर॥
कौन रसिक है इन बातन कौ।
नंद-नंदन बिन कासों कहिये, सुन री सखी मेरो दु:ख या मन कौ।
कहँ वह जमुना पुलिन मनोहर, कहँ वह चंद सरद रातिन कौ।
कहँ वह मँद सुगंध अमल रस, कहँ वह षटपद जलजातन कौ।
कहँ वह सेज पौढिबो बन को, फूल बिछौना मदु पातन कौ।
कहँ वह दरस परस 'परमानंद' कोमल तन कोमल गातन कौ॥
ब्रज के बिरही लोग बिचारे।
बिन गोपाल ठगे से ठाढे अति दुरबल तन हारे॥
मात जसोदा पंथ निहारत निरखत साँझ सकारे।
जो कोइ कान्ह-काह कहि बोलत ऍंखियन बहत पनारे॥
यह मथुरा काजर की रेखा जे निकसे ते कारे।
'परमानंद' स्वामि बिनु ऐसे ज्यों चंदा बिनु तारे॥
मैया मोहिं ऐसी दुलहिन भावै।
का गोप की तनक ढोठिनियाँ,रुनक झुनक चलि आवै॥
कर-कर पाक रसाल आपने कर मोहिं परसि जिमावै।
कर अंचर पट ओट बबातें, ठाढी ब्यार ढुरावै॥
मोहिं उठाय गोद बैठारै, करि मनुहार मनावै।
अहो मेरे लाल कहो बाबा तें, तेरो ब्याह करावै।
नंदराय नंदरानी देउ मिलि, मोद समुद्र बढावै।
'परमानंददास को ठाकुर, बेद विमल जस गावै॥
कहा करौ बैकुंठहि जाय?
जहाँ नहि नन्द जसोदा गोपी, जहाँ नहीं ग्वाल-बाल और गाय।
जहाँ न जल जमुना कौ निर्मल, और नहीं कदमनि की हाय।
'परमानन्द' प्रभुचतुर ग्वालिनी, बज-रज तजि मेरी जाइ बलाय।।
श्री लाल कछु कीजे भोजन तिल तिल कारी हों वारी हों।
अब जाय बैठो दोउ भैया नंदबाबा की थारी हो॥१॥
कहियत हे आज सक्रांति भलो दिन करि के सब भोग संवारी हो।
तिल ही के मोदक कीने अति कोमल मुदित कहत यशुमति महतारी॥२॥
सप्तधान को मिल्यो लाडिले पापर ओर तिलवरी न्यारी।
सरस मीठो नवनीत सद्य आज को तिल प्रकार कीने रुचिकारी॥३॥
बैठे श्याम जब जेमन लागे सखन संग दे दे तारी।
परमानंद दास तिहि औसर भरराखे यमुनोदक झारी॥४॥
पतंग की गुडी उडावन लागे व्रजबाल॥
सुंदर पताका बांधे मनमोहन बाजत मोरन के ताल॥१॥
कोउ पकरत कोउ खेंचत कोउ चंचल नयन विशाल।
कोउ नाचत कोउ करत कुलाहल कोउ बजावत बहोत करताल॥२॥
कोउ गुडीगुडीसो उरझावत आवत खेंचत दोरिरसाल।
परमानंद स्वामी मनमोहन रीझ रहेत एकही ताल॥३॥
यह मांगो गोपीजन वल्लभ ।
मानुस जन्म और हरि सेवा, ब्रज बसिबो दीजे मोही सुल्लभ ॥१॥
श्री वल्लभ कुल को हों चेरो,वल्लभ जन को दास कहाऊं ।
श्री जमुना जल नित प्रति न्हाऊं, मन वच कर्म कृष्ण रस गुन गाऊं ॥२॥
श्री भागवत श्रवन सुनो नित, इन तजि हित कहूं अनत ना लाऊं ।
‘परमानंद दास’ यह मांगत, नित निरखों कबहूं न अघाऊं ॥३॥
आज दधि मीठो मदन गोपाल ।
भावे मोही तुम्हारो झूठो, सुन्दर नयन विशाल ॥
बहुत दिवस हम रहे कुमुदवन, कृष्ण तिहारे साथ ।
एसो स्वाद हम कबहू न देख्यो सुन गोकुल के नाथ ॥
आन पत्र लगाए दोना, दीये सबहिन बाँट ।
जिन नही पायो सुन रे भैया, मेरी हथेली चाट ॥
आपुन हँसत हँसावत औरन, मानो लीला रूप ।
परमानंद प्रभु इन जानत हों, तुम त्रिभुवन के भूप॥
माई मीठे हरि जू के बोलना ।
पांय पैंजनी रुनझुन बाजे, आंगन आंगन डोलना ॥
काजर तिलक कंठ कचुलामल, पीतांबर को चोलना ।
‘परमानंद दास’ की जीवनी, गोपि झुलावत झोलना ॥
मंगल माधो नाम उचार।
मंगल वदन कमल कर मंगल मंगल जन की सदा संभार ॥१॥
देखत मंगल पूजत मंगल गावत मंगल चरित उदार ।
मंगल श्रवण कथा रस मंगल मंगल तनु वसुदेव कुमार ॥२॥
गोकुल मंगल मधुवन मंगल मंगल रुचि वृंदावन चंद ।
मंगल करत गोवर्धनधारी मंगल वेष यशोदा नंद॥३॥
मंगल धेनु रेणु भू मंगल मंगल मधुर बजावत बेन।
मंगल गोप वधू परिरंभण मंगल कालिंदी पय फेन ॥४॥
मंगल चरण कमल मुनि वंदित मंगल की रति जगत निवास ।
अनुदिन मंगल ध्यान धरत मुनि मंगल मति परमानंद दास ॥५॥
यह प्रसाद हों पाऊं श्री यमुना जी।
तिहारे निकट रहों निसिबासर राम कृष्ण गुण गाऊँ॥१॥
मज्जन करों विमल जल पावन चिंता कलह बहाऊं।
तिहारी कृपा तें भानु की तनया हरि पद प्रीत बढाऊं॥२॥
बिनती करों यही वर मांगो, अधमन संग बिसराऊं।
परमानंद प्रभु सब सुख दाता मदन गोपाल लडाऊं॥३॥
कुंज भवन में मंगलचार ।
नव दुलहन वृषभान नंदिनी, दूल्हे ब्रजराज कुमार ॥१॥
नये नये पुष्पकुंज के तोरण, नव पल्लवी बंदनवार ।
चोरी रची कदंब खंडी में, सघन लता मंडप विस्तार ॥२॥
करत वेद ध्वनि विप्र मधुप गण कोकिला गण गावत अनुसार ।
दीनी भूर दास परमानंद प्रेम भक्ति रतन के हार ॥३॥
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