Skip to main content

मेहँदी भाव , संगिनी 9

"श्याम सौं उरझि जावक बन रचि री श्यामा सखिन श्यामल कर धर दीनि जय जय"

आज गोपाल रास रस खेलत,
पुलिन कल्पतरु तीर री सजनी।
शरद विमल नभ चंद्र विराजत,
रोचक त्रिविध समीर री सजनी।
चम्पक बकुल मालती मुकलित
मत्तमुदित पिक कीर री सजनी
देसी सुधंग राग रंग नीको
ब्रज युवतिन की भीर री सजनी
मघवा मुदित निसान बजावत
ब्रत छाँडयो मुनि धीर री सजनी
हितहरिवंश मगन मन स्यामा
हरत मदन मन पीर री सजनी।

रात्रि से पूर्व ही श्यामसुंदर जु ने सब सखियों के हाथों व चरणों में मेहंदी लगा दी है और अब नीलमणि ने जो भाव आवरण सखियों पर डाला था उसे हटा देते हैं।जैसे ही यह आवरण हटता है चकित सखियाँ अपने हाथों पर लगी अद्भुत जावक को देख बलिहारी जातीं हैं और सखी बने श्यामसुंदर की जावक सरंचना व तीव्रता की बहुत तारीफ करतीं हैं।अद्भुत कला है सखी की कह उस पर बलिहारी जातीं हैं।
श्यामसुंदर जु अब अपना कार्य निपटा कर जाने के लिए कहते हैं।पर ये क्या? इस मेहंदी में तो अभी भी सरसरी सी मची है।श्यामा जु के करकमलों व चरणों पर रच चुकी है और अष्टसखियों के भावों में भी रंगी ने सब मञ्जरी सहचरि किंकरी के चरणों को छू कर श्यामाश्याम जु का प्रसाद पा लिया है पर अभी भी ये अटपटी सी क्यों है?
अब क्या चाहती है ये?आज तो प्रिया जु की छुअन से इसके भीतर अद्भुत अह्लाद ही भर गया है।
सहसा श्यामा जु श्यामसुंदर सखी को पुकार लगातीं हैं
अरी सखी!तूने तो सच में आज कमाल कर दिया है।जादू है री तेरे हाथों में।
सुन!आज पूर्ण चंद्र की रात्रि है और बिना पारितोषिक लिए तू नहीं जा सकती।आ बैठ!आज तेरे हाथों में भी मेहंदी लगा दूँ।आ तुझे भी पिया मिलन की इस रैन पर निकुंज सखी सरीखा श्रृंगार धरा दूँ। बलिहार!
बस इतना ही कहना था कि श्यामसुंदर जु तो वहीं मंत्रमुग्ध से हुए श्यामा जु के चरणों में ही बैठ गए और घूंघट की आढ़ से ही किशोरी जु की करूणा वहाँ सखी प्रेम पर भावभावित हो अश्रु प्रवाह करने लगते हैं।सच अद्भुत है सब!
श्यामा जु हाथ जावक का पात्र व तुलिका दे देते हैं और स्वयं अपना हाथ आगे बढ़ा देते हैं।
श्यामा जु जैसे ही सखी बने श्यामसुंदर जु का कर कर में लेतीं हैं दोनों तुरंत सिहर उठते हैं।अब भला दो देह एक प्राण श्यामा श्यामसुंदर जु कैसे कुछ अभिन्न सोच भी सकते हैं।ये सब आवरण तो सखियों को दिखाने के लिए ही हैं ना।
श्यामा जु श्यामसुंदर जु के दोनों करकमलों के ठीक मध्य में गोलाकार चक्र बनातीं हैं और साथ ही"राधामाधव"नाम गोलाकार ही लिख देतीं हैं ऐसे कि नाम जहाँ से शुरू होता है वहीं पे समाप्त भी।अद्भुत!
उंगलियों के पौरों पर जावक लगा कर किशोरी जु श्यामसुंदर जु से रात्रि जागरण व नृत्य गायन के लिए आमंत्रित करतीं श्रृंगार करतीं सुंदर वस्त्र धारण करके आने को कहतीं हैं।
सखी श्यामा जु के चरण छू कर अश्रु बहाती वहाँ से चली जाती है।उनकी करूणा दयालुता के पद गाती सखी वहाँ से मेहंदी का पात्र व तुलिका ले कर चली जाती है।
जय जय श्यामाश्याम ।।
मेहंदी भाव-9 समाप्त
क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात