रास में नाचत लालबिहारी नचवत हैं सब ब्रज की नारी बीच में हैं राधा प्यारी जय जय
"नैन पै मैन की सैन चली सखि,उन नैनन ते जो नैन मिलाये
नैन नें नैन जू बांध लिए तब,नैन सों नैन हटे न हटाये।।
नैन ने ऐसी जू मोहिनी दारी कि,नैनन नैन लगत मन भाये
उन नैनन नैन लड़े जबते,इन नैनन में ये नैन समाये।।"
सखियों के मध्य में हैं युगल और जिन्हें वे अपने मनोभावों में संग देख रहीं हैं वे सब श्यामाश्याम जु की प्रतिछवियाँ जो लीलायमान की सहज लीलाओं की ही एक अद्भुत अपारिभाषित अनोखी प्रेमरस पूर्ण झाँकियाँ ही हैं।सब सखियाँ अपने प्रेमास्पद व प्रेमिका की सेवा में ही व्यस्त हैं।उनके लिए ये महारास भी प्रियाप्रियतम जु को सुख प्रदान करने का एक न्यारा अवसर है जिसे वे अपने सहयोग से पूरी तन्मयता से निभाती हुईं मग्न हैं।
श्यामा श्यामसुंदर जु निभृत निकुंज में प्रवेश कर चुके हैं।श्यामा जु की खिलखिलाती हंसी और श्यामसुंदर जु की शरारत भरी अटकेलियाँ सघन निकुंज में संगीत का कार्य कर रही हैं।यहाँ श्यामा श्यामसुंदर जु की ही मधुर ध्वनियाँ गूँज रहीं हैं।
श्यामा जु की माथे की चंद्राकार बिंदिया प्रकाश कर रही है।उनकी काजल की गहरी रेख ही आसमान में छाई घटा हैं और काले केश जिसमें मणियों का अद्भुत श्रृंगार है वही रात्रि का आकाश है जो नीलमणि के नीले रंग पर पूर्णतः छा चुका है।श्यामा जु की गहरी सुगंधित श्वासें ही यहाँ की महकती पवन हैं।इनकी चूड़ियाँ वे कटिबंद ही हैं जो कहीं कहीं रसपिपासु समन्दर के लिए परिधियाँ हैं जो इस रस समन्दर को कभी कभी बाँध लेती हैं और कभी नूपुर पायल इसे हाँमी भरते फिर उन्मुक्त कर देते हैं।कोई बाहरी व प्राकृत आवरण इस सघन निकुंज में आज कनखियों में से भी इस अथाह पवित्र अमृतत्व रस को छू या देख भी नहीं सकता।
युगल के नेत्र आज चकोर हैं जो परस्पर एक दूसरे को निहारते हुए क्षण क्षण गहराईयों में डूबते जा रहे हैं।पलक झपकने भर की भी जहाँ गुजाईश नहीं वहीं श्यामसुंदर जु के नेत्र श्यामा जु के एक के बाद एक सुकोमल अंगों में शूल से चुभते जा रहे हैं।उनके नेत्र कभी श्यामा जु के सुर्ख लाल अधरों पर तो कभी उनके हृदय में गढ़ रहे हैं।
श्यामा जु कुछ क्षण तो इन प्यासे दृगों को यूँ ही अंग प्रत्यगों पर विचरन करने देतीं हैं और फिर करूणावश श्यामसुंदर जु को अपने हृदय से लगा लेतीं हैं।श्यामा जु की नख बेसर की मात्र तड़िता सी कौंध जाती है और श्यामसुंदर जु हृदय से हट श्यामा जु को गहन आलिंगन में भर लेते हैं।फिर श्यामा जु के कर्णफूल की दमक से अप्राकृतिक घण झंकार से श्यामसुंदर जु श्यामा जु के अधर पर पड़ी ओस की रसबूँदों में डूबने उतरने लगते हैं।कभी पग की थाप वे हथेली की धम सी गर्जन ध्वनि से श्यामसुंदर जु के हृदय में श्यामा रूपी घन गहराता है तो कभी श्यामा जु इसे अपने हृदय में धारण कर शांत करतीं हैं।
यूँ ही अर्धरात्रि उपरन्त श्यामा रूपी कमल श्यामसुंदर रूपी भंवरे को मधुपान कराता मुग्ध करता रहता है और अति भोर परयंत तक भंवरा कमल पुष्प की सुकोमलतम पंखड़ियों में कैद हो चुका है।दोनों रस रसीले प्रेमरस पिपासु परस्पर रससागर में डूबे डूबे एकरूप हो गए हैं।
दो देह एक प्राण हो चुके और इनकी देह के रंग जैसे एक ही पात्र में घुल जाने से एकरंग हो चुके हैं।'तुम में मैं या मुझमें तुम'वाला भेद समाप्त हो चुका है।दोनों रससागर अथाह एकरसरूप हुए हैं जैसे इनका भिन्न आस्तित्व विलुप्त हो चुका है और अभिन्नता में ये प्रीतिरस की पूर्णता के असीम में अंग से अंग अधर से अधर नेत्र से नेत्र मिलाए असीम हो गए हैं।
महारात्रि के इस महामिलन का गहरा प्रभाव सघन निकुंज के बाहर मदमय सखियों के हाव भावों में उतर चुका है।उन्हें युगल के सम्पूर्ण मिलन से हो रहे सपंदन से ही आतुरता व्याकुलता का अंत हो गया जान पड़ता है।सखियों को यही लगता है कि श्यामसुंदर जु प्रत्येक सखी को उसके भावानुकूल प्रेम रस चखा रहे हैं।किसी को वह प्रेम तृष्त श्यामसुंदर अधरों से अधर मिलाए तो किसी के नेत्रों में डूब कर रस पीते तो किसी को गहन से गहनतम आलिंगन में लिए प्रतीत हो रहे हैं।
श्यामसुंदर जु श्यामा जु की कायव्युहरूपा तमाम सखियों को महारास का अलौकिक रसपान करते कराते स्वयं भी किरतार्थ हो रहे हैं व अपनी प्रेमास्पद सखियों को भी तृप्त कर रहे हैं।
मधुबन का कोना कोना प्रेमरस में नहा चुका है और यमुना जु की लहरें तेज उफान पर हैं जैसे वे गहरी सांसों में डूबती उतरती श्यामा जु ही हों।इस सारे रस से बह्माण्ड की ब्यार भी शीतल व सुगंधित हुई संसार को प्रेमरस बन छू रही है।सुगंधित पवन पूरे संसार में रस बौछार करती विचर रही है।
और इन पलों की विलक्षणता कि मेहंदी का रंग व महक भी श्यामा श्यामसुंदर जु के प्रेम रसरंग में घुलकर एकरस हो चुका है और असीम में मिल कर पूर्णतः समर्पित ये मेहंदी अमर हो गई है।
जय जय श्यामाश्याम।।
मेहंदी भाव-13 समाप्त
क्रमशः
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