Skip to main content

मेहँदी भाव , संगिनी 10

श्वेत सारी श्वेत पीताम्बर आजि सजि जोरि अनुपम शीतल श्वेत चंद्र चौकोरि सी निच्छल चित्तवन जय जय

"चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बर तल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झूम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥"

श्यामा जु श्यामसुंदर जु को लौट कर आने को कहतीं हैं।शरत्पूर्णिमा का पूर्ण श्वेत चंद्र काले घनेरे आसमान में अद्भुत अनोखी आभा लिए सखी भाव से विभोर हो आ गया है।सितारों से घिरा यह चंद्र भले ही आज आसमान में अनोखा सज रहा हो पर धरा का चाँद तो आज निकुंज में ही खिला है जो श्यामा जु से रससार आभा ले सगरे ब्रह्मांड को सितारे रूपी सखियों संग प्रकाशित कर रहा है।अनोखी रूप माधुरी छाई है आज निकुंज वन में।
श्यामसुंदर श्यामा जु ने नील और पीत वस्त्र त्याग आज अद्भुत सुंदर श्वेत रंग के लहंगा व अंगरखा पहन रखा है और सब सखियों ने हल्के पीले रंग के वस्त्र पहन रखे हैं।
मध्य में श्यामा श्यामसुंदर जु और गोलाकार चक्र में सब सखियाँ युगल को घेरे खड़ी हैं।
श्यामसुंदर वंशी पर मधुर शरद पूर्णिमा रात्रि मिलन की धुन छेड़ देते हैं और श्यामा जु कुछ क्षणों तक तो इस गहरी रसपूर्ण वंशी ध्वनि को सुनतीं हैं और फिर श्यामसुंदर जु के अंक लगीं धीरे धीरे गुनगुनाती हुईं ताल से ताल मिलाती गाने लगतीं हैं।
सखियाँ तो वंशी ध्वनि व श्यामाजु के गान में इतना डूब चुकीं हैं कि उन्हें अपने वहाँ होने का भी एहसास नहीं हो रहा।सब सखियाँ श्यामा जु की ही तो भावस्वरूपा हैं तो आज सब श्यामा ही हो आईं हैं।
शरद पूर्णिमा की रात श्यामसुंदर जु पूर्णतः श्यामा जु में लिप्त हो महारास रचाते हैं जिसमें वे एक एक सखी में प्रिया जु को ही देखने लगते हैं और उनकी प्रियतम मिलन की चाह को पूर्ण करते हुए श्यामा जु में ही सम्माहित पाते हैं।कभी श्यामा जु में ही उन्हें सब समाई हुई लगतीं हैं।प्रेम पिपासु श्यामसुंदर आज अनवरत रसपान कर रहे हैं।किसी के नेत्रों में डूबे हैं तो किसी की भाव तरंगों के संग बह रहे हैं।हर सखी को आनंद प्रदान करते श्यामसुंदर जु आज सत् चित्त आनंदघन मूर्तिमान हुए निकुंज में सब भावमूर्तियों को सुख पहुँचा रहे हैं।
श्यामा जु के गायन के साथ साथ नृत्य आरम्भ होता है जिसमें श्यामसुंदर जु जिनके आस पास ही श्यामा जु घेरा बनाए नाच गा रहीं हैं वहीं सब सखियाँ नृत्य रस में ही इतना डूब चुकी हैं कि उन्हें हर एक को अपने समक्ष श्यामसुंदर जु और श्यामा जु हृदय में ही नज़र आ रहीं हैं।वे सब आँखें मुंदे श्यामा श्यामसुंदर जु के मधुर मिलन का ही एहसास सपंदन महसूस कर रही हैं।तमाम रात्रि रास चलता है और किसी को भी कोई थकान का आभास नहीं।आज सब प्रियतम की प्रेम संगिनियाँ हो गई हैं और प्रियाप्रियतम जु को रिझाने के लिए तत्पर।
हर एक सखी को यही लग रहा है कि जैसे श्यामसुंदर व श्यामा जु उसी के सन्मुख खड़े हैं।प्रत्येक सखी युगल को पा कर निहाल हुई जाती है।युगों से इंतजार कर रही अनगिनत सखियों की मन की मुराद आज पूर्ण हो रही है।सब अपने अपने भाव से ही श्यामाश्याम जु को मानसिक भाव पुष्प अर्पित कर उनकी मन ही मन पूजा अर्चना करती है।
अर्धरात्रि हो चुकी है।नृत्य गायन सब अपनी चरम सीमा पर है।गीत संगीत ध्वनियाँ निकुंज के कोने कोने से स्वतः ही उठ रही हैं।सब सखियाँ यंत्रचालित सी स्वयं को श्यामसुंदर जु संग कर में कर लिए नाच रही हैं ।दो दो सखी के बीच एक एक श्यामसुंदर कर में कर लिए गहन रसभाव में डूबे अनवरत रास रचा रहे हैं।मध्य में श्यामा श्यामसुंदर जु  अत्यधिक उत्साहित हैं और कभी एकरूप तो कभी दो नज़र आते हैं।बलिहार!
और इन सब के बीच कर से कर के जुड़े होने के बीच ये पगली मेहंदी!
अहा!सुरख लाल रंग प्रेम वाला जैसे चढ़ा हो।नूपुर पायल के प्रेमालाप से भी एक हुई ये प्रियाप्रियतम व सखियों के करों में भी यह भावरूपिनी समाई है।अथाह प्रेम रंग में रंगी ये अनोखी संगिनी ही हुई है सखियों व प्रियाश्याम जु की।प्रेम में ही गहराती ये महारास में भी अपने रंग व महक को लिए सबको छूकर समा ही गई है।बड़भागिनी पूर्णतः रच बस कर एक हो गई है सबकी प्रेम लहरियों में तरंगायित बहती ये मेहंदी पूर्णता को प्राप्त हुई।
जय जय श्यामाश्याम।।
मेहंदी भाव-10 समाप्त
क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात