गोप गोपांगना जय लीला लीलाधर जय श्याम श्यामा जय वृंदावन धाम जय जय
"सुन्दरगोपालम् उरवनमालं नयनविशालं दुःखहरम् ।
वृन्दावनचन्द्रमानन्दकन्दं परमानन्दं धरणिधरम् ॥
वल्लभघनश्यामं पूर्णकामम् अत्यभिरामं प्रीतिकरम् ।
भज नन्दकुमारं सर्वसुखसारं तत्त्वविचारं ब्रह्मपरम् ।।"
श्यामा जु अति अधीर हो उस मूर्तिस्थ सांवली सखी के चारों ओर गोलाकार नृत्य करतीं हैं।उनकी व्याकुलता से व्याकुल हुई उनकी कायव्यूहरूपा सखियाँ एक एक कर नृत्य करती उनमें सम्माहित होने लगती हैं।श्यामसुंदर जु के विरह में श्याम नाम पुकारती सखियाँ श्यामा जु के कर से कर मिलाती उनमें समाने लगतीं हैं।
श्यामसुंदर जु जब श्यामा जु को ऐसे अधीर हुआ जानते हैं तो वे वंशी बजाते सुरताल मिलाते वहीं उपस्थित होते हैं और श्यामवर्ण सखी को अपने में सम्माहित कर लेते हैं।
अब जब लीला सम्पूर्ण होने को है तो पूरा लीला परिकर श्यामा श्यामसुंदर जु में समा चुका है और जावक के भाव जो श्यामा जु के स्पर्श से उस सखी में उतरे थे वे भी पूर्णतः श्यामसुंदर जु में समा गए हैं।हर एक सखी के चरणों व कर से छू कर अंततः ये जावक भाव सांवली सखी स्वरूप श्यामसुंदर ही हो गए हैं।जहाँ जिस हृदय से जावक का उद्भव हुआ वहीं श्यामसुंदर जु में इसका उद्गम हो चुका है।
श्यामा जु अभी भी नृत्य रस में निमग्न हुईं "कृष्ण कृष्ण" पुकार रहीं हैं और श्यामसुंदर जु भी वंशी में "राधे राधे" नाम उच्चारण कर रहे हैं।अंत में ये दोनों युगल प्रियाप्रियम संस्पर्श में आते हैं और श्यामा जु श्यामसुंदर व श्यामसुंदर श्यामा जु हो जाते हैं।श्यामसुंदर जु पीतवर्ण और श्यामा जु नीलवर्ण धारण कर मेहंदी के रंगों को अपने में सम्माहित कर लेते हैं और यूँ जब सब भेद समाप्त हो जाते हैं तो मेहंदी के उन्मादित भावों को प्रियाप्रियतम जु की एकरस युगल छवि का दर्शन कर विश्राम मिलता है।
ये सब सखियों का व जावक का श्यामा श्यामसुंदर जु में यूँ सम्माहित होना कोई दैहिक मिलन नहीं है अपितु यहाँ कहीं भी श्यामसुंदर जु द्वारा किसी का कोई स्पर्श नहीं किया गया है।सखियों का श्यामा जु में और जावक भावभावित सांवली सखी का श्यामसुंदर जु में सम्माहित होना लीलायमान श्यामसुंदर जु के अंतरंग भावों का अंतर में मिल कर एक हो जाना है।
श्यामा श्यामसुंदर जु ही प्रेम रसापूर्ति के लिए स्वयं में से समग्र भाव परिकर का निर्माण करते हैं और उस भाव के पूर्ण होने पर समस्त भावों को अपने में सम्माहित कर लेते हैं।श्यामा श्यामसुंदर जु का मिलन कोई स्त्री पुरूष मिलन नहीं बल्कि स्वयं का स्वयंचित्त से मिलन है जो उनमें से ही निकल उनका उनमें ही समा जाता है।
जय जय श्यामाश्याम।।
मेहंदी भाव-22 समाप्त।
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