युगल सखी-5
"मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।"
श्यामा जु !!
श्यामा जु जब किसी को चुन लेतीं हैं तो उस पर अकारण कृपा बरसातीं हैं तभी तो वे रस बरसाने वाली हैं।श्यामा जु का हृदय अति कोमल है।उनके नामुच्चारण मात्र से हृदय में सच्चिदानंद स्वरूपघन श्रीवृंदावन का श्यामसुंदर जु संग आविर्भाव हो जाता है।उनकी अपार करूणा व कृपा से श्यामा जु अपनी इच्छा से ही भक्त के हृदय की जान उसके मन मंदिर में प्रियतम श्यामसुंदर जु की छवि को निहार लेतीं हैं।
सखी श्यामसुंदर जु को हृदय में विराजमान कर सके इससे पहले ही उसका हृदय करूणा भरा हो जाता है और फिर वहाँ प्रवेश करतीं हैं श्यामा जु उस हृदय को और अधिक व्याकुल करने कि सखी की दृष्टि में जो श्यामसुंदर जु की छवि आती है उसे वह स्वयं नहीं अपितु श्यामा जु होकर ही निहार रही हो।
सखी श्यामा जु के भीतर आ जाने से श्यामसुंदर जु को आकर्षित करती है जैसे श्यामा जु भाव और सखी देह हो।मन भीतर बसी श्यामा जु जब पल पल अत्यधिक व्याकूल होतीं हैं तो जैसे श्यामसुंदर जु भी इसी पल के इंतजार में उस सखी तक खिंचे चले आते हैं।
सखी तब एक यंत्रवत् भावदेह सी काम करने लगती है।नामजप व भजन करती दिव्य सखी के आनुगत्य में सखी को नितनव नवीन भावलीलाओं का दर्शन होने लगता है।जहाँ उसके लिए गहन वृंदावन के रहस्य खुलते हैं।बस एक स्पर्श से सखी अपना स्वरूप भुला कर उन तृणरूप सखी के चरणों की रज से लग रज हो जाती है और अपनी दैन्यता व युगलकृपा से फिर उसे जो अनुभूत होता है वह किसी चमत्कार से कम नहीं होता।
खुद की अस्मर्थता जान सखी यहाँ आत्मसमर्पण कर देती है और फिर वो होती है युगल सखी जिसका स्वरूप भाव प्रेमाधिकार सब वीलीन हो चुका होता है श्यामाश्याम जु के वास्तविक स्वरूप में।जहाँ अपनी व्याकुलता के वशीभूत हो सखी श्यामा श्यामसुंदर जु को मिलाने हेतू हर सम्भव प्रयास करती है और ये जानते हुए भी कि वे अभिन्न हैं सखी उनकी मिलनस्थितियों में ही उनकी हर एक गतिविधि व सुख का ध्यान करती है।
सखी जैसे वृंदावन की पृष्ठभूमि बन वहाँ अपने भावजनित भावराज्य में अपने प्राण प्रियाप्रियतम जु को सदैव निहारने लगती है।भोर भई से उसके हृदय पर एक एक कर अंकित होने लगते श्यामा श्यामसुंदर जु के परस्पर रसरूप व रसतृषित तत्सुख भाव।जिन्हें देख वह इस असाधारण प्रेमी प्रेमिका के असाधारण प्रेम की गहराईयों में डूबती उतरती उनकी सेवा हेतू व्याकूल हो उठती है।तब अकारण करूणावरूणालय प्रियाप्रियतम उस सखी को अपना लेते हैं।
श्यामा श्यामसुंदर जु पूर्णकाम पूर्णप्रेम रसरूप हैं पर वे अपनी सखियों के भाव अनुरूप ही देह धारण करते हैं और वह देह होती है सखी की भावदेह जहाँ श्यामा जु उस देह के प्राण हैं और श्यामसुंदर जु मन।
मन अर्थात श्यामसुंदर जो स्वयं कर्ता पूर्ण काम हैं।जहाँ श्यामा जु विराजती हैं वह मन मंदिर है सखी का।यहाँ श्यामसुंदर स्वयं श्यामा जु के रसास्वादन के लिए तत्पर होकर भावरूप प्रकट होते हैं और श्यामा जु की भावसेवा करते हैं।सखी इनसे अभिन्न जरूर है पर यहाँ रस रसरूप रस आस्वादन करने वाले श्यामसुंदर जु ही हैं और श्यामा जु प्रेम रस जो सखी के हृदय में युगल इच्छा से ही उतरता है।सखी सुखरूप रहती हुई युगल को रस आस्वादन में सदा सहाई रहती है।
आसान शब्दों में कहूँ तो जैसे लेखिका केवल एक जड़ कलम है जहाँ श्यामा जु भावरूप रंगरस भरी स्याही जिसका रसासावादनकर्ता केवल और केवल श्यामसुंदर जु।एक रसिक जो जड़ और भाव को छू कर वृंदावन धाम ही प्रकटा देते हैं।स्वयं चित्त स्वयं रचनाकार स्वयं पूर्ण काम जो राधारूप पृष्ठभूमि को सखी रूप कलम से रंग रंगीला बनाकर स्वयं उसका आस्वादन करते।स्वसुख हेतू नहीं प्रेम हेतू।
जय जय सखीवृंद
जय जय श्यामाश्याम
जय जय वृंदावन धाम
क्रमशः
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