श्री हरिदासी रूप वर परगते श्री हरिदास
बन्दहुं तिन के पद कमल, 'प्रीतम' प्रिय हिय आस
बन्दहुं वृन्दा विपिन कुंज निधिवन द्रुम बेली
रंग महल अतरंग रँगे जित क्रीडत केली
पौढ़ि कबहु पर्यंक अंक पिय प्यारी गहि गहि
रहि रहि लहि लहि सहज कपोलन चुंबत नहिं कहि
'प्रीतम' रस निधि नित्य नवल लीलान अनन्दों
श्री स्वामी हरिदास स्याम स्यामा पद बन्दों
श्री हरिदास सुहाग, श्री हरिदास हुलास हिय
श्री हरिदासनुराग, 'प्रीतम' श्री हरिदास प्रिय
श्री - स्यामा रस दान दियौ पाई तब निधि -श्री
स्वा - गत तब तिन कियों निरख छवि बीसौ बि -स्वा
मी - ठौ या ते और न कछु है अन्तरया - मी
ह - र दिन पल छिन निरत रहत रस ही पै सुख ल -ह
रि - स मुनि जाकौ पार न पायौ व्रत तप करि क -रि
दा- मन लीनों थाम बसे हिय स्याम सर्व -दा
स- रबस रस में रँगे पगे रस ही में सरब -स
जी - वन धन सर्वस्व प्राण बिहारिन हैं -जी
श्री- निधि कौ प्रागट्य भयौ निधिबन के मधि -जी
स्वा- रत स्यामा स्याम किये तिन नें अपने ब -स
मी- न मेख ना रही बसे हिय सदा सर्व -दा
ह- र पल छिन रस पियौ रूप माधुर्य सु जिय भ -रि
रि- धि सिधि बारत केलि कला पै कला सकल जँ -ह
दा- न कियौ रस बही रसिक वर रस अनुगा -मी
स - ब विधि रस बस रहे जगत में बीसौ बि -स्वा
जी- वन प्राण बिहारि बिहारिनि 'प्रीतम' के -श्री
जय जय कुंज बिहारिणे, जय वृन्दावन धाम
कोटि कोटि कंदर्प हू, लाजत आठौ याम
लाजत आठौ याम, रसिक लीला लख सरबस
बरबस रस बस होत, सकल जग गावत गुन जस
'प्रीतम' स्यामा स्याम प्रिय, विहरत जित अनवरत मय
नित नव वय रहि करत रति, सो स्वामी हरिदास जय
कर अनुराग राग भाग कौ जगायौ जिन
राखौ है सुहाग रागनीन के प्रमान कौ
सप्त सुर भेद ही ते मोहे सुर लोक सप्त
तृप्त जग कीनों धरि रूप रस दान कौ
'प्रीतम' सु जान प्रान रसिकन कौ है सदा
गायौ गान स्यामा स्याम जू के ही रिझान कौ
ए ते गुन गढ़यौ चढ़यौ त्यौं ही हरिदास पानि
ज्ञान कौ तमूरा मढ़्यौ पूरा यै सु तान कौ
काहू नें तौ मूल कौ अधार लियौ सार जान
साखन ते प्यार काहू कीन्हों है बिचारि कें
बसंती बहार सजे पातन की छांह काहू
गातन सुहानी तहाँ बैठे ध्यार धारि कें
फूलन सुबास काहू हिय में बसी है जहाँ
भक्त मन भीर रमें हित निरधारि कें
'प्रीतम' निचोरि नेह फल कौ सु तत्व रस
पियौ हरिदास स्यामा स्याम कों निहारि कें
सेवा भोग राग कौ सजायौ बाग बल्लभ औ
तरु बेलि लिपटानी चैतन्य के रास नें
फूले हैं अनेक भाँति-भाँति के सुफूल पंथ
गंध भरी तिन में सु वृन्दावन बास में
सदा ही बसन्त बने पल्लव प्रवीन भक्त
छांह तरें पायौ सुख जग जन त्रास नें
'प्रीतम' के प्रान प्रभू सबै फल दान दियौ
पै पियौ रस एक ही स्वामी हरिदास नें
देखे हैं अनेक पंथ पढे हैं अनेक ग्रन्थ
संत औ महंतन की बात बड़ी सुनी है
सिद्ध है सिद्धान्त सुद्ध साधना आराधना के
साधुता में रत सभी रिसी और मुनी हैं
धनी है सुभावना के भक्ति के प्रचारक हू
ज्ञान उपदेस ही की राह काहू चुनी है
'प्रीतम' है सार रस सब ही कौ तब ही तौ
स्वामी हरिदास रसोपासना की मनी है
करूआ मृन तें भयौ कंचन पात्र सजी तन स्वर्न स्रिंगार ते धूरा
गुदरी सुधरी लिपटी जब ही जु करे सब साल दुसाल अनूरा
कवि 'प्रीतम' स्यामा औ स्याम बिहार निहार बनी कविता रस सूरा
ब्रज के बन बागन भाग जगे जब राग रंग्यौ हरिदास तमूरा
रस निकुंज मधि केलि रस, करत प्रिया प्रिय स्याम
हेरत श्री हरिदास जू, सो रस आठौ याम
सो रस आठौ याम, स्रवित हिय सरबर माँही
आनंद पद्म पराग, गंध विहरत चहुं घाही
'प्रीतम' भावन भृंग भ्रमि गावत गुन नव नव सरस
सुन सुन रसिक विहंग बन बेलि बिटप मिल द्रबहि रस
रस निकुंज रसना रसिक रस ब्रज बनि तन रास
'प्रीतम' रस बस प्रान धन, रस निधि श्री हरिदास
ब्रज रस ब्रज बगरयौ सकल, ब्रज राज कन-कन मांहि
'प्रीतम' ब्रज सुख कों सतत देव मनुज ललचांहि
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