चूर आज आनंद मद में बोलो श्रीराधिका की जय सलोने सांवरे गोविंद राधा प्राण की जय जय
"ब्रज चौरासी कोस में, चारगाम निजधाम।
वृन्दावन अरू मधुपुरी, बरसानो नन्दगाम॥
नित्य छबीली राधिका, नित छविमय ब्रजचंद।
विहरत वृंदाबिपिन दोउ लीला-रत स्वच्छन्द॥
राधाकुण्डे श्यामकुण्डे गिरि गोवर्धन।
मधुर मधुर वंशी बाजे, ऐई तो वृन्दावन॥"
वहीं दूसरी ओर श्यामसुंदर जु नंदभवन में चुपके से प्रवेश कर अपने कक्ष में पहुँच चुके हैं।मईया बाबा सब नित्य नेम पूजनादि में रत्न हैं और श्यामसुंदर जु एक बार तो आ खाट पर लेट जाते हैं।
रात्रिमिलन की यादों में खोए श्यामसुंदर जु अकेले ही कभी मुस्करा देते हैं तो कभी अपनी प्राणप्रिय श्यामा जु के स्पर्श को अभी भी महसूस कर रस में डूब रहे हैं।उन्हें अपनी प्रिया से मिलन की एक एक घड़ी अपनी आँखों में तैरती हुई नज़र आती है।यूँ ही अपने ही ख्यालों में खोए खोए से श्यामसुंदर जु के कजरारे अर्धनिमलित नेत्रों की शोभा क्या कहूँ।
अत्यंत मनमोहक लग रहे हैं श्यामसुंदर।
कितनी ही देर तक वे बीते दिन व रात्रि की रस लीलाओं का चिंतन कर रहे हैं कि अचानक उनकी नज़र अपने हाथों पर लगी मेहंदी पर जाती है जिसे श्यामा जु ने स्वयं अपने हाथों से प्रियतम के हाथों पर लगाया था।उनके चेहरे की मंद हंसी बताती है कि श्यामसुंदर जु कल मेहंदी भाव की लीलाओं का स्मरण कर रहे हैं कि कैसे उन्होंने राधा जी और फिर सब सखियों के हाथों व चरणों पर सखी रूप में जावक लगाई और फिर श्यामा जु ने श्यामसुंदर जु के करों पर "राधामाधव"नाम लिखा।उन्हें अपने पौरों पर लगी जावक से श्यामा जु के कर में पकड़ी तुलिका के स्पर्श से हुए कम्पन का स्मरण हो आता है और वे यहाँ लेटे ही काँप जाते हैं।
श्यामसुंदर जु अपने कर पर लगी जावक को दूसरे कर से स्पर्श करते हैं।
आहा।अद्भुत।।
स्पर्श करते ही समर्पित जावक श्यामसुंदर जु वहीं श्यामा जु के रस भाव की गहन तरंगें फिर से उजागर हो उठतीं हैं।
श्यामसुंदर जु के छूते ही जावक की महक उनके हाथों में समा भावों की पालकी में बैठ उनके हृदय में उतर जाती है जहाँ श्यामा जु सदा निवास करतीं हैं और श्यामा जु के निवास स्थान तक जाए तो ये भाव श्यामा जु को ना छुएं!नहीं हो सकता ना!!अहोभाग!
जय जय श्यामाश्याम।।
मेहंदी भाव-18 समाप्त
क्रमशः
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