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मेहँदी भाव , संगिनी 16

बड़ा रंगीला है कृष्ण बड़ा छबीला कृष्ण
गोविन्द मुरारी कृष्ण गोवर्धन धारी है कृष्ण
राधा राधा हैं कृष्ण आधार जय जय

"बृंदावन क्यों न भए हम मोर।
करत निवास गोबरधन ऊपर, निरखत नंद किशोर।
क्यों न भये बंसी कुल सजनी, अधर पीवत घनघोर।
क्यों न भए गुंजा बन बेली, रहत स्याम जू की ओर॥
क्यों न भए मकराकृत कुण्डल, स्याम श्रवण झकझोर।
'परमानंद दास' को ठाकुर, गोपिन के चितचोर॥"

प्यारे व अति भोले श्यामा श्यामसुंदर जु भिन्न होकर भी अभिन्न हैं और अभिन्न होकर भी भिन्न।त्रिलोकभुवन स्वामी ब्रह्मांड अधिपति श्रीकृष्ण अपनी आराधिका आराध्य विश्वसुंदरी भरपूर रस की खान श्रीराधे जु के प्रेम में उन्मत्ता से अपने स्वरूप को भुला यहाँ पूर्ण रूप से रसपिपासु होकर रस की पूर्ति के लिए अति दीन वहाँ सेवा भाव से शरणागत हैं।उन्हें अपने स्वयं के रूप सौंदर्य का जिससे उन्होंने विश्व के कण कण को मोहित कर रखा है उसका तनिक भी अभिमान नहीं है अपितु यहाँ वे प्यारी जु के रूप सौंदर्य पर मोहित हुए तनप्राण की सुद्ध बिसार बैठे हैं।
ऐश्वर्य पथ पर वे बेशक श्रीकृष्ण रूप सौंदर्य के धनी हों पर माधुर्य पथ पर तो श्यामा जु के समक्ष उनका ऐश्वर्य फीका पड़ नत् मस्तक हो जाता है।उनका गौर रंग श्यामल व रूप कांति श्यामा जु की सखियों के आधीन हो जाती है।हों भी क्यों ना!वे विश्व पुरूष युग पुरूष महायोगी सम्पूर्ण विश्व को चलाने वाले हैं तो उनको चलाने वाला भी तो कोई उनसे अधिक बलशाली व त्रिभुवन विमोहक ही होगा और वो ओर कोई हो भी कैसे सकता है हमारी श्री किशोरी जु के अलावा जिन्हें स्वयं श्रीकृष्ण ने ही रसातुर हो अपने में से ही अपने ही लिए प्रकट किया है।ये श्रीराधे उनकी शक्ति ही तो हैं जिन्होंने अपने प्रियतम के लिए ये गहन प्रेम रसरूप धारण किया है।
श्यामा जु की सब सखियाँ श्यामा जु ही की विभिन्न शक्तियाँ हैं जो हर जगह व हर तरह से प्रियाप्रियतम जु की रसलालसा की पूर्ति के लिए सदैव ललायित रहती हैं।इस सब में इनका स्वसुख की प्राप्ति का तो सवाल ही नहीं उठता जब ये तो हैं ही श्यामा जु की विभिन्न विभिन्न अति रोचक भावभंगिमाएँ।ये इन में से ही प्रकट होकर लीला उपरांत इन्हीं में सम्माहित होती रहती हैं।श्यामा जु के सुख में ही इनका सुख है व श्यामा जु का श्यामसुंदर जु में।
फलस्वरूप जो ये सब दर्शन सखियों को अभी हो रहा है ये कोई और नहीं बल्कि स्वयं श्यामा जु ही हैं जो अपने और अपने प्रियतम से मिलन के पश्चात स्वयं ही अपने युगल स्वरूप माधुरी का अपने ही सखी रूप नेत्रों से पान कर रहीं हैं।
ये पुष्प बेल लता पता मेहंदी काजल लाली गुलाली कोई और नहीं बल्कि स्वयं श्यामसुंदर जु ही हैं जो अपनी प्रिया से अपने मिलन को हर रूप में रसपान करते हुए तमाम भावों को जी रहे हैं।ये प्रेमरस मधूसूदन रस के लिए किसी पर नहीं अपितु स्वयं पर ही आश्रित रहते हैं सदा तो लीला मात्र इन्होंने अनेकानेक सखियों का रूप धर अपने ही रूप सौंदर्य व श्रृंगार और रस माधूरी को आलिंगित कर भरमा रखा है।
समक्ष खड़ी सखियाँ भले ही अभिन्न जान पड़ती हों पर ये हैं तो स्वयं श्यामा श्यामसुंदर जु के मन के अति प्रेमरस भरे रसप्याले ही।जब जो जिस तरह का भाव जहाँ प्रबल होता है वहीं श्यामा श्यामसुंदर ही उसी सखी रूप में प्रविष्ट हो अपने प्रगाढ़ भाव को जीने लगते हैं।
अंततः ये जो सखी इनका दर्शन कर रही है ये वास्तव में श्यामाश्याम ही हैं जो अपनी मिलन की भावभंगिमा के रस से अछुते नहीं रहना चाहते और सखी बन अपनी ही रूप माधुरी का स्वयं पान कर रहे हैं।एक एक सखी प्रियाप्रियतम जु के एक एक अंग व भाव का पान कर रही है और आनंद में है जिसका रस श्यामाश्याम जु की प्यास को अधिकाधिक बढ़ाने में ही निमित्त बनता है।
प्रेमी प्रेमास्पद क्षण भर के लिए भी किसी भी तरह से रसातुर हुए स्वयं के अंगों से व सखियों के सहस्र नेत्रों से भी रूप माधुरी का पान कर रहे हैं।युगल स्वयं खुद को ही खड़े निहार रहे हैं हर सखी के माध्यम से।ये स्वयं सम्पूर्ण हैं।
स्वआश्रित।
जय जय श्यामाश्याम
मेहंदी भाव-16 समाप्त
क्रमशः

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