Skip to main content

निदिया बने श्यामसुन्दर , अमिता दीदी

निंदिया बने श्यामसुन्दर
~~~~~~~~~~~~

किशोरी जू श्यामसुन्दर का चिंतन करते करते शैया पर लेटती हैं। श्यामसुन्दर श्यामसुन्दर ......पुनः पुनः उनका हृदय यही पुकारता है। श्यामसुन्दर आ जाते हैँ देखते हैँ मेरी प्यारी जू के नैन तो मूंदे हुए हैं। आहा ! आज किशोरी जू के नैनों में निंदिया बनकर समा जाऊँ। मेरी प्यारी जू कितने प्रेम से मुझे पुकार रही हैँ। श्यामसुन्दर निंदिया बनकर प्यारी जू के नेत्रों में समा गए । आहा ! जब प्रिया प्रियतम संग हों तो सखी का आनन्द मन में नहीं समाता। सखी को केवल अपनी श्यामाजू ही दिखाई पड़ती है जो अपने नैनों में श्यामसुन्दर को निंदिया बना धारण कर चुकी है।
  इधर श्यामा जू के नेत्र तो प्रेम रस से भर गए। श्यामा जू प्रेम मूर्छा में हो रही परन्तु उनका रोम रोम श्यामसुन्दर को चाहता है। उनका हृदय व्याकुल हो उठा। श्यामसुन्दर नैनों में आ गए पर हृदय को कौन समझावे। हृदय तो श्यामसुन्दर श्यामसुन्दर की ही रट लगा रहा है।

     प्यारी जू ऐसे अपनी पलकें ढाँप कर लेटी हुई हैँ कि श्यामसुन्दर इन्हीं में समाये हुए हैँ। आज उनकी पलकें ही सारा प्रेम रस चख रहीं जैसे। धीरे धीरे व्याकुल हृदय की पुकार देख उनका रोम रोम व्याकुल होने लगता। उनकी पुकार इतनी तीव्र हो उठती है। श्यामसुन्दर श्यामा के नैनों में ही समाये हुए हैँ भीतर से ही उन्हें निहार रहे हैँ। पर श्यामा जू के रोम रोम से व्याकुलता उठ रही है। उनकी केवल ऑंखें ही नहीं रोम रोम श्यामसुन्दर से मिल्न को उत्कण्ठित है। श्यामसुन्दर अपनी प्यारी जू के साथ जहाँ मिलन का आनंद ले रहे वहीं उनके भीतर विरह के ताप को भी अनुभव कर रहे हैँ। ये कैसी विचित्र स्थिति है। श्यामाजु का प्रेम ऐसा अद्भुत है। बलिहार बलिहार ! मेरी प्यारी जू।

श्यामा अधीर हो उठी और नींद से जाग श्यामसुन्दर श्यामसुन्दर पुकारने लगी। सखी कहती है प्यारी जू धीर धरो श्यामसुन्दर आ ही रहे होंगें। आज श्यामसुन्दर श्यामा में ऐसे समाये हुए कि न तो श्यामा को उनका अनुभव हो रहा न ही सखी को दिखाई पड़े। श्यामसुन्दर अपनी प्यारी जू को ऐसे विरह ताप में कैसे देख सकते हैँ। एक क्षण में श्यामसुन्दर उनकी पलकों से ही प्रकट हो जाते हैँ। श्यामसुन्दर तुम कहाँ थे। कब से तुम्हें पुकार रही थी। अभी तक प्यारी जू को ये अनुभव नहीं हुआ की वो श्यामसुन्दर के संग ही थीं उनके प्रेम में ऐसी व्याकुलता हो उठती है कि मिलन में भी विरह गहरा जाता है। श्यामसुन्दर अपनी प्रिया जू के इस अद्भुत प्रेम पर पुनः पुनः बलिहार जाते हैँ। सखी अपने प्रिया प्रियतम के इस अद्भुत प्रेम पर न्योछावर हो जाती है।

    जय जय श्री राधे

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात