Skip to main content

वृंदावन सखी , संगिनी जु 6

काया शुद्ध होत जब ब्रज रज उड़ि अंग लगे।
नैंन शुद्ध होत दर्श युगल छवि पाये तै।।

श्री युगल और सखी जहाँ हैं वहीं श्री वृंदावन है।अपना स्वरूप त्याग अब सखी श्यामा श्यामसुंदर जु के रूपजाल की रसमाधुरी का भावपूर्ण श्रृंगार करती है।

इन प्रिया प्रियतम जु की देह का श्रृंगार आभूषणों से तो होता ही है पर इससे भी अत्यधिक मनभावन रस श्रृंगार जो सखी अपने भावरस से करती है वह है सखी स्वयं।

प्रियालाल जु और लाड़ली जब निभृत निकुंज में हैं और सखी उनके अद्भुत मिलन आलिंगन का अपने नेत्रों से दरस करती उनकी छवि को हृदय में बसा लेती है तो उसके समक्ष प्रिया प्रियतम जु दो देह एक प्राण से नज़र आते हैं और वह सहचरी सखी भावाकुल हो नेत्र मूंद लेती है।मुंदे नेत्रों में भी उसके युगल गलबहियाँ डाले हैं और यह सखी स्वयं को एक शांत एहसास जैसा पाती है ताकि युगल को उनके मिलन क्षणों में कोई व्यवधान ना हो और श्यामा श्यामसुंदर जु को निहारती रहती है।निहारते निहारते कभी यह अत्यधिक व्याकुल होती है तो श्यामा श्यामसुंदर जु में अत्यधिक रस गाढ़ता का आर्विभाव होने लगता है और जब ये मिलन गहराता है तो सखी कभी उनके अधरों की लाली कपोलों की गुलाली व नेत्रों में अंजन रूप स्वयं को पाती है।कभी वह युगल सुख हेतू पवन रूप हो उन्हें शीतलता पहुँचाती है तो कभी तपिश बन उनके मिलन ताप को बढ़ाती है।

श्रीयुगल जु को यूँ एक होते देख सखी उन्हें ऋतु रूप हो उनके प्राणवायु को अनुकूल करती है।श्यामा जु के वक्ष् पर लगे अंगराग की महक को पवनरूप हो कर बार बार बढ़ाती है ताकि श्यामसुंदर जु की व्याकुलता कभी कमल ना हो।वे भी मृगनयनी की कस्तूरी की महक के लिए कभी कहाँ तो कभी कहाँ देह विचरण करते हैं।श्यामा जु की रोम रोम की महक उन्हें प्रिया जु की नाभि दर्शन पर अटका देती है कि तभी श्यामा जु के अधरों पर कम्पन बन उनकी व्याकूलता को आक्रोशित करती लाल जु को अधरपान करने को उकसाती है।उनके नेत्र अधर और अंग प्रतयंग एक हुए जाते हैं।

श्यामसुंदर जु की व्याकूलता अधीरता ऐसी हैं कि भंवर रूप श्यामा जु के रोमकूपों पर कई कई हजार मुख वाले हुए जाते हैं और अनवरत प्रिया जु के रोम रोम से रसपान करने लगते हैं।प्रिया जु भी प्रियतम सुख हेतू पूर्णतः समर्पित होती उन्हें कभी अपने मुखकमल तो कभी वक्ष् भुजाओं उदर व कटि से सटा लेतीं हैं।

कोमलांगी प्रिया जु श्रमवश कभी आह भरतीं हैं तो श्यामसुंदर जु कुछ थम कर अपनी प्रिया को बार बार अपने स्नेहिल आलिंगन में ले लेते हैं ताकि उन्हें श्रमित ना होना पड़े।तब सखी जल कण बन उनके अधरों पर आ विराजती है जो एक क्षण के लिए तो उनको रसस्कित करती है पर दूसरे ही क्षण ओस बूँदें सी श्यामसुंदर जु को फिर आकर्षित कर लेती है।श्यामा जु की अपार सुंदरता व सरलता श्यामसुंदर को अत्यंत कामुक करती है।प्रिया जु भी श्यामसुंदर जु के अद्भुत प्रेम के कारण श्रमित होते हुए भी उनसे कुछ ना कहतीं हैं और उन्हें गहन आलिंगन देतीं हैं।

श्यामा श्यामसुंदर जु के इस असाधारण प्रेम की गहराईयों को निहारती सखी बार बार उनकी बलाईयाँ लेती है और चाहती है ये रसिक चंचल चितवन लिए श्यामा श्यामसुंदर जु अनवरत कभी ना थमने वाला प्रेमदान सदा करते रहें।ये ऐसे युगल प्रेम में बंधे रहें जहाँ प्रेमी सदा रसपिपासु नायक और अद्भुत रसरूप की राशि श्यामा जु कभी भिन्न ना हों।सखी उन्हें सदा अभिन्न ही निहारना चाहती है और नित नव नव भावरूपों से युगलप्रेम में छकी उन्हें सुखदान के लिए आतुर व्याकुल उसका ये अभिन्न सखी प्रेम।

जय जय भावसखी
जय जय श्यामाश्याम
जय जय वृंदावन धाम
क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात