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वृन्दावन सखी , संगिनी जु 10

"दीजो मोहि वास वृन्दावन माही
जुगल नाम को भजन निरंतर,और कदंबन छाही।।
बृज वासिनः के झूठन टूका,अरु जमुना को पानी।
रसिकन को सत्संगति दीजे,सुनिवो रस भरी वाणी।
कुंजन को नित डोलिबो दीजे,दीजो भोर बुहारी।
मिलवे को हिये माहि चटपटी,प्रीती होये अति भारी ।
कोटि प्राण नित बरिबो दीजे,देखत चरण छठा री।"

रस गाढ़ता में डूबे श्यामा श्यामसुंदर जु एक दूसरे के रोम रोम का रसपान करने लगते हैं।उनके रोमकूपों से अनवरत रस बह रहा है और प्रियाप्रियतम जु उसे अतृप्ति से पीते जा रहे हैं।श्यामा जु की व्याकुलता प्रतिपल बढ़ती चली जा रही है और श्यामसुंदर जु भी अधीरता वश श्यामा जु को अंक में लिए जैसे सब स्वयं में सहेज लेना चाहते हैं।कभी वे नेत्र पान करते अधररसपान के लिए तो कभी अधररसपान करते हुए आलिंगन में ले लेने के लिए अति उत्छृंकल्त हो रहे हैं।

सखी श्यामा श्यामसुंदर जु की अद्भुत निराली रूप माधुरी को हृदयांकित करते हुए उनके श्रीअंगों का समार्दन बार बार करती रहती है।श्यामा जु की बिखरी अलकों को और श्यामसुंदर जु की घुंघराली लटों को आपस में उलझा देती है।उनकी आँखों का काजल अधरों पर और माथे का सिंदूर कपोलों पर आ सजा है।अधरों की लाली वक्ष् भुजाओं उदर व अन्य अंगों को श्रृंगारित किए हुए है।

श्यामा जु की आँखों में श्यामसुंदर जु श्यामसुंदर श्यामसुंदर जु की आँखों में श्यामा जु भरी हैं।दोनों परस्पर दर्पण समान ही हो गए हैं और अनवरत रसपान में जुटे हैं।श्यामा जु की अंगकांति प्रियतम की अंगकांति से मिल गई है।नीलवर्ण श्यामसुंदर जु पीतवर्ण श्यामा जु में घुलते जा रहें हैं जैसे इतना खुद को एक दूसरे में भर रहे हों कि तुम मैं और मैं तुम हो जाएँ।

यूँ ही घुलते मिलते प्रियाप्रियतम जु एक दूसरे में समाने लगते हैं।श्यामा जु श्यामसुंदर व श्यामसुंदर श्यामा जु दोनों में कोई भेद कोई अंतर नहीं जैसे एक ही शीशी में दो मिलित तनु एकरंग हो गए हैं।एक दूसरे में ऐसे समाए हैं कि कह पाना असम्भव है कि कौन किसमें समा रहा है और किसकी देह किसके प्राण।दो रूहें ज्यों घुल मिल कर एक हुईं और दो का आस्तित्व ही ना रहा।युगल तुम तुम केवल तुम में तुम ही हो चुके हैं।मैं रहा ही नहीं।

सखी श्यामा जु की कायव्यूहरूपा एक भाव भंगिमा सी है जो परस्पर रसवर्धन हेतु ही युगल देह से विलग होती है जैसे श्यामसुंदर जु से श्यामा जु प्रेम व रूप रसपान हेतु।श्यामसुंदर जु स्वयं अपने रूपजाल में फंसे स्वयं से ही प्रेमातुर रसपान के लिए श्यामा जु से भिन्न स्वरूप में उतरते हैं और रूपमाधुरी का रसपान करते फिर फिर अभिन्न हो जाते हैं।ऐसे ही सखी भी श्यामा जु से अभिन्न है।केवल और केवल रसविस्तार के लिए ही वह उनसे अभिन्न होते हुए भी भिन्न होती है और जब ये रस अपनी चरम सीमा को पा जाता है तब सखी भी श्यामा जु में ही विलीन होकर बार बार अभिन्न होती है फिर से भिन्न होने के लिए।

प्रेम की पराकाष्ठा कि यह सदैव अचिंत्य गहराता रहता है।इसका कभी कोई परिणाम नहीं होता।प्रेम विभिन्न स्वरूप धारण करता है फिर से एक अभिन्न होने के लिए और स्वत: बहता रहता है बढ़ता रहता है बिना बंधन और किसी सीमा के।अनवरत सदा।प्रेम पूर्ण है क्योंकि इसके भीतर रिक्तता है।इसी रिक्तता में प्रेम उतरता है और इसे ही पूर्ण बनाता है।सखी युगल के इस रसरूप का मार्जन भीतरी रिक्तता से ही कर पाती है जो पूर्ण होती है युगल मिलन में।सखी के जीवन का यही ध्येय भी है और यही सदा गहराते रहने वाली युगल प्रीति।सखी का तन प्राण श्वास रूधिर सब युगल ही हैं।

युगल भी सखी से अभिन्न ही हैं।उनके भाव प्रेम व परस्पर तालमेल की स्वरलहरियाँ हैं ये सखियाँ।श्यामा श्यामसुंदर जु इन सखियों बिन सदा अधूरे ही हैं।प्रेम स्वयं से होना ही संभव नहीं।प्रेम प्रेमास्पद एक होते हुए भी द्विरूप होने आवश्यक हैं और जहाँ रूप वहाँ उस रूप के हावी भाव उससे भिन्न हो ही नहीं सकते।एकरूप होते होते जितने भाव भीतर उजागर होते वो सखी रूप हो जाते और फिर सब भाव पूर्णकाम तक जाते जाते अपना अपना भावपूर्ण जाल बिछातकर फिर रूप में ही मिल जाते हैं अन्यथा प्रेम में रसानन्द ना हो।सखी ही युगल के अद्भुत प्रेम की रूपरेखा है तो उसमें स्वसुख की भावना कहाँ होगी।वह तो युगल में से ही अवतीर्ण होती है युगल में ही विलीन हो जाने के लिए।

अंतरंग सखी !!
अंतर यानि भीतर के रंगों को उजागर कर अंतर में ही घुल मिल जाती।श्यामा जु की एक भावभंगिमा जो उनके मुख पर या देह में कहीं भी उभरती रूप के रंग को निखारती फिर उसी श्री अंग में समा जाती।अपना कुछ पाने या खोने नहीं उनके और उनके प्रेम सम्माहित होने।उनका एक एहसास बन जगने और एहसास में ही पूर्ण होने।

  सखी श्री युगल को निहारती अब उनमें पूर्णतः लीन होती अभिन्न हो जाती है।सखी श्यामा जु में समा जाती है।अब प्रेम में भिन्न हुईं सब भाव तरंगें उमड़ घुमड़ कर फिर एक हो गईं सदा के लिए नहीं अपितु फिर से गहन परिसीमाओं को पाने।अंत नहीं प्रेमविश्राम है ये।बार बार दौहराता रहेगा गहराने के लिए।अभिन्नता में समाने के लिए।

  ऐसा नहीं है कि यहाँ केवल एक ही सखी है। जितने श्यामा जु की अद्भुत रूपराशि के भाव व जितने श्यामसुंदर जु के रसपान करने के पिपासु रूप उतनी सखियाँ जो एक एक हर रोमकूप से रसपान कराती और फिर रोम हो जाती।

यहाँ यह सखी भी रसवर्धन कर रसरूप ही श्यामा जु में समा जाती है।रसास्वादन करते केवल और केवल श्यामसुंदर किसी स्वार्थ से नहीं अपितु प्रेम को पूर्ण करने हेतु।सखी तो समा गई पीछे छूटे श्यामा जु की गुलाबी  साड़ी व श्यामसुंदर जु का पीताम्बर एक अनोखी महक लिए।ये महक भी एक सखी जिसे साड़ी से पीताम्बर की और पीताम्बर से साड़ी की अभिन्न महक मंत्रमुग्ध कर रही।

हा श्यामा जु !!   
हे श्यामसुंदर  !!
मुझ अकिंचन को भी अपनी सखी बना लो
वृंदावन की रज चढ़ादो
लता का एक अंग बनादो
मौन रसास्वादन करूँगी
हा श्यामा  !!
हे श्यामसुंदर  !!
मुझे निकुंज की पवन बनादो
छू कर रस को नि:शब्द बहूंगी !!
हा श्यामा जु !!
हे श्यामसुंदर  !!
मुझे वस्त्र का रंग बनादो
युगल से ही खिल कर
युगल में घुल कर
युगल में ही रसरंग छकूंगी
हा श्यामा  !!
हे श्यामसुंदर  !!
मुझे कुंजों का संगीत बनादो
युगल गुण गाऊं
युगल ही भजूंगी
मयूर कोकिल संग विचरूंगी
हा श्यामा  !!
हे श्यामसुंदर  !!
मुझे एक अदना सा एहसास बनालो
युगल से उभर कर
युगल ही हो रहूंगी  !!
हा श्यामा जु !!
हे श्यामसुंदर  !!
मेहंदी अलता सिंदूर बना लो
युगल में घुल मिल सुहाग सजूंगी
हा श्यामा  !!
हे श्यामसुंदर  !!
मुझे भी अपनी सखी बनालो
सेवा कर बड़भाग जगूंगी

जय जय श्यामाश्याम।।
जय जय वृंदावन धाम।।

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