Skip to main content

मेहँदी भाव , संगिनी 21

परम आह्लाद से बोलो ह्लादिनी राधिका की जय ह्लादिनी के परम प्रियतम श्याम की जय जय

"पायल छनकाती राधा आ जाती
मन बनकर ऐन्द्रिक सखियाँ मिल जाती
जैसे एक होकर भक्ति संग कृष्णा नाचे
आस्था बनकर प्रेम बन जाये आँसू 
बनकर शरीर का रोम रोम रास बनकर आ जाओ कान्हा"

श्यामा जु आज एक अद्भुत आह्लाद से भरी हैं और"कृष्ण कृष्ण"करतीं वे अति अधीर हो उठी हैं।तभी एक सांवली सलोनी सखी दर्पण लेकर श्यामा जु के समक्ष आ खड़ी होती है और उन्हें दर्पण दिखाती है।जैसे ही श्यामा जु दर्पण में देखतीं हैं तो वे अपने को ना देख वहाँ श्यामसुंदर जु को ही देखतीं हैं और फिर से आनंद में भर जातीं हैं।
"कृष्ण कृष्ण" नाम लिखित अपने कोमल हस्त से श्यामा जु दर्पण पकड़ने लगतीं हैं कि उनका कोमल कर उस सखी के कर से स्पर्श हो जाता है और श्यामा जु की नज़र दर्पण से हट कर सहसा उस सखी पर पड़ती है जिसके मुख से श्यामा जु का कर छूते ही"कृष्ण"नाम निकलता है।श्यामा जु को उसकी छवि में श्यामसुंदर जु ही दिखाई देने लगते हैं।श्यामा जु उसे दोनों हाथों से उसकी भुजाओं से पकड़ उसे अपने समक्ष बैठा कर निहारने लगतीं हैं।कुछ क्षण निहारने के बाद वे कहतीं हैं
"श्यामसुंदर जु आज आप अभी तक सुंदर वस्त्रालंकार ना पहने हो?आओ आज हम आपका श्रृंगार करते हैं।"
इतना ही सुनना था कि सखी के नेत्रों में जल भर आया और वह श्यामा जु के चरणों में बैठ उनसे कहती है कि वह श्यामसुंदर जु नहीं है।पर श्यामा जु आज किसी की भी सुने तब ना!तो सखियाँ उस सखी से शांत बैठने के लिए कहती हैं।उन्हें डर है कि आज श्यामा जु महाभाव में ना चली जाएँ तो कैसे भी कर उन्हें श्यामसुंदर जु के आने तक जैसे रीझती हैं उन्हें वैसा करने दो।
श्यामा जु उस सखी को श्यामसुंदर समझ वैसा ही श्रृंगार धराना आरंभ करतीं हैं।एक सखी से कह वे श्यामसुंदर जु की पौशाक व आभूषण मंगवातीं हैं और उस सखी को पहना कर उसके मस्तक पर गोरोचन धरा कर मोरपिच्छ युक्त मुकुट पहना देतीं हैं।कानों में कुण्डल गले में वेज्यंती माल हाथ में कंगन व पैरों में पायल पहना कर वे सखी को दर्पण हाथ में देतीं हैं और इसे वंशी जान सखी को अधरधर बजाने के लिए कहतीं हैं।सखी श्यामा जु से कहती है कि उसे वंशी बजाना नहीं आता पर श्यामा जु तो स्वयं इसे उसके अधरों से लगातीं हुईं वंशी को फूँकने के लिए कहतीं हैं।अब यमुना जु के तट पर कदम्ब तले खड़ी यह सखी वंशी अधरों पर धर बजाने का प्रयास करती है तो स्वतः ही वंशी से मधुर ध्वनि प्रकट हो जाती है और उस सखी के सौंदर्य व सौभाग्य की तो क्या कहूँ !जैसे श्यामा जु की छुअन ने उसे सच में ही श्यामसुंदर कर दिया हो।अद्भुत साजोश्रृंगार से सजी वह सखी कृष्ण ही प्रतीत हो रही है।मुख से मधुर स्वर झरने लगते हैं तो सखी उन्माद से भर जाती है और श्यामा जु उसे श्यामसुंदर ही जान पहले उसे निहारती हैं फिर उसके कंधे पर सिर रख गुनगुनाती हैं और सहसा ही वंशी की धुन से ताल मिलाती नाच उठतीं हैं।
जय जय श्यामाश्याम।।

मेहंदी भाव-21 समाप्त
क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात