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मेहँदी भाव , संगिनी 17

वृंदावन सौं वन नहीं नन्दगाँव सौं गाँव बंशीवट सौं वट नहीं श्रीकृष्ण नाम सौं नाम कोटि कोटि प्रयास कियो ना होए श्यामा जु कौ गुणगान जय जय

"प्रेम अवनि श्री राधिका प्रेम बरन नंदनन्द।
प्रेम वाटिका के दोऊ माली मालिन द्वन्द।
प्रेम हरि कौ रूप है त्यौं हरि प्रेम स्वरूप।
एक हनोई द्वै यों लसैं ज्यौं सूरज अरू धूप।"

इतने में कुछ सखियाँ वहाँ ताम्बूल चंवर ले आती हैं और यहाँ उपस्थित सखियों को श्यामा जु के स्नान के लिए सामग्री एकत्रित करने का आदेश देती हैं।आदेश है भी पर नहीं भी।प्रेम में आदेश भी सेवा ही है ना।निकुंज में तो ऐसे आदेश के लिए सखियाँ उपसखियों से हाथ जोड़ विनती करती हैं कि सखी मैं कब प्रिया जु की सेवा में सहयोगिनी बनूंगी?कब मैं ये सौभाग्य पाऊंगी?ये है दास्य सखी सेवा भाव।अब दास्य भाव भी प्रेम में पूजा हो जाता है।श्यामा जु किसी भी किंकरी मञ्जरी सहचरी आदि को दासी कह नहीं पुकारतीं।उनकी तो सब प्रिय सखियाँ ही हैं और वे कोई भेदभाव भी नहीं रखतीं किसी भी सखी के प्रति।अद्भुत करूणामयी हैं श्यामा जु।प्रियतम मिलन के गहन भाव अतिरेक में वे किसी भी सखी को श्यामसुंदर जु ही समझ बैठतीं हैं।हमारी भोली श्यामा जु।जय जय।।
उपसखियाँ आकर श्यामा श्यामसुंदर जु को चंवर डुराती हैं और ताम्बूल देती हैं।युगल के प्रेम पर बलिहारी सखियाँ उनके प्रेम के चिरजीवी होने के सुमंगलतम गीत गाती हैं और उनकी इस सुंदर छवि की आरती उतारती हैं।प्यारी सखियाँ बड़े प्रेम से प्यारे कान्हा जु और श्यामा जु को अब आलस्य छोड़ने के लिए आग्रह करती हैं और श्यामा श्यामसुंदर जु को भोर में अपने नित्य प्रति कार्य निपटा लेने के लिए कहती हुई उन्हें जगाती हैं।सखियाँ उनके अर्धखुले नयनों से बरसते निरंतर नेहरस की बलिहारी जाती हुई उन्हें फिर तुरंत मिलन के पलों का ज्ञान कराती हैं।
श्यामा श्यामसुंदर जु एक पल के लिए भी जुदा नहीं होना चाहते पर सखियों के प्रेम भरे आग्रह व उनकी सेवा की इच्छापूर्ति के लिए भिन्न हो ही जाते हैं।
श्यामसुंदर नंदभवन की ओर जाते हैं और श्यामा जु को सखियाँ वहीं सघन निकुंज में कालिन्दी के तट पर ले जाती हैं।श्यामा जु को अभी तक श्याम जु से भिन्नता का कोई आभास ही नहीं है।वे अभी भी उनको स्वयं से लिपटे हुए ही महसूस कर रही हैं और उन्हीं अति मधुरिम सुंदर पलों में खोई नहीं बल्कि जी रहीं हैं।
सखियाँ श्यामा जु के वस्त्र उतार उन्हें सफेद रंग की चूनर में लपेट तट के समीप बिठाती हैं और उनकी सुंदर सुकोमलतम देह पर चंदन केसर युक्त हल्दी उबटन का लेप लगाती हैं।कुछ क्षण उपरांत इस लेप को कोमल स्पर्श से गीली कोमल सूती चुनरी से साफ करतीं हैं और फिर श्यामा जु को सुगंधित पुष्पमिलित तैल लगाकर हल्के हाथों से मालिश करती हैं।
श्यामा जु की देह एक चूनर से ढकी है और इसके अलावा एक ये मेहंदी ही है जो उनके देहस्पर्श में पूर्णतः घुल सी गई है।रात्रि में ही श्यामा श्यामसुंदर जु की छुअन व प्रेम से इसका रंग व महक गहरी हो चुकी है और अब तैल लगते ही इसकी रंगत चमक गई है।
दूसरे सब श्रृंगार तो प्रियाप्रियतम मिलन में जस के तस नहीं रह पाते ना।काजल बिंदिया सिंदूर सब बिखर जाता है पर ये निगोड़ी लज्जामुक्त मेहंदी श्यामा श्यामसुंदर जु के अधरों की लाली सी उनसे अभिन्न ही रहती है।ये रंगअंगभगी और भागजगी मेहंदी या तो श्यामा श्यामसुंदर जु के मधुर प्रेमरस से जड़ हो चुकी है या पूर्णतः उनके इस प्रेम में घुल ही चुकी है।इसे भी श्यामा जु से पल भर भी छूटना नहीं है क्योंकि कृष्णभाव लिए ये प्रिया जु के रंग में रंग चुकी है।
सखियाँ भी तैल उबटन लगाती यही कह रही हैं
अरी बड़भागिनी तो ये रंग है मेहंदी का जो पूर्ण रात्रि श्यामा श्यामसुंदर जु से लिपटा रहता है।अद्भुत संयोग में बंधा है इस मेहंदी का प्रेम प्रियाप्रियतम में।चिरजीवी ये श्यामाश्याम जु के हाथों व चरणों की दासी बन उनके भावों में गहराती लाली यूँ ही सदा संग बनी रहे और उनके सुहाग की परम साक्षी सदा सर्वदा उनसे लिपटी रहे।
जय जय श्यामाश्याम।।

मेहंदी भाव-17 समाप्त
क्रमशः

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