Skip to main content

मेहँदी भाव , संगिनी 14

श्यामा श्यामसुंदर महारास रच रहे खेलत खेलत दोऊचंद मधुर रस में डूब रहे जय जय

"दोऊ चंद्र दोऊ चकोर श्याम श्यामा हुए विभोर
प्रेम खेल खेलत खेलत दोऊ खिलोना रसबोर
एकरूप भये री प्रियतम प्यारी तत्सुख की भई होर
देखत देखत सखियन ललचावैं सेवा में लीजो लाड़ली नंदकिसोर"

अति भोर की बेला है।पूर्ण चंद्र अब पूर्ण रस हो चुका है।जग के जागने से पहले ही ब्रह्मांड में प्रेमरस की बौछार हो चुकी है।एक नई प्रेम ऋतु का आगमन जो इस सुबह के साथ प्राकृतिक शीतलता ले आएगी और प्रेम के नवअंकुर खिल उठें ऐसी सुबह जिसे युगल की एकरूपता ने रसबोर किया है।
वैसे तो रात्रि में ही पूर्णिमा के चंदा ने रस धरा पर बरसाना आरम्भ कर दिया था पर अब जो पूर्णरस निकुंज की धरा पर बरसा है उस अप्राकृत प्रेम ने प्रकृति को नहला दिया है।प्रकृति नई भोर में नया उजाला ले उल्लसित हुई जाग उठी है।
वृंदा देवी की महक वृंदावन की कुंज गलियारों से निकल घर घर में समा गई है।हर आँगन चुबारे पर कार्तिक मास के आगमन के साथ वृंदा देवी को अर्ग व दीपदान दिया जा रहा है।
त्योहारों की सुमंगल बधाईयों की तैयारियाँ हर कूचे में होने लगी हैं।हर तरफ भक्ति भाव उजागर किए जाने लगे हैं और संग ही रिश्ते नातों में एक अजब प्रेमरस घुलना प्रारम्भ हो गया है।
ये तो असर है उन युगल के प्रीतिरस में बंधे होने का धरा पर।
निकुंज में अभी सखियों पर पड़े प्रभाव को देखें तो आज की सुबह बेशक प्रेम में छके होने से थोड़ी थकान व आलस्य भरी हो पर सखियों के मन में युगलसेवा का जो भाव है वह भी नवअंकुर लिए हुए उत्साह भरा है।तो लो चल दीं ये प्यारी सखियाँ आज सुहाग का बाना औढ़े प्रियाप्रियतम जु को जगाने उसी सघन निभृत निकुंज में जहाँ वे प्रेमदेव अभी भी प्रेमलिप्त निरंतर प्रेम की बरसात कर रहे हैं।
जैसे संध्या उपरांत के श्याम घण ने चंदा की किरणों को अपने पीछे रोक रखा हो बिल्कुल ऐसे ही श्यामसुंदर जु ने प्रिया जु को अपने आलिंगन में छुपा रखा है।हाए।।
जैसे उस श्यामल बादल के किनारों से पूर्ण चंद्र की सुनहरी किरणें झाँक रही हों और छन छन कर बादल को सुनहरी चूनर औढ़ा कर दुल्हे का सा सेहरा पहना रही हों।आहा।।
श्यामसुंदर दुल्हा ही तो हैं और श्यामा जु अपनी कायव्युहरूप सखियों के साथ उनकी दुल्हन।बलिहार।।
तो आज सब प्रियाएँ ही हैं।सुंदर पर अटपटे श्रृंगार में।अटपटे जैसे जल्दी जल्दी में सबने रात्रि के मनमोहक श्रृंगार को ही अस्त व्यस्त सा कर रखा हो।सेवा के वो क्षण ना छूट जाएँ तो सगरी सखियाँ बस चल दी हैं ऐसे ही कोई कंगन हाथ में लिए तो कोई खुली पायल लिए।सबकी काजल बिंदिया सिंदूर बिखरा है पर पिया पिया की गूँज सबमें एकरस है।यंत्रचालित चलीं हैं अपने सुहाग के मंगला दरस को।
अब ऐसा नहीं है कि केवल श्यामसुंदर ही इनका सुहाग हैं।इनकी मेहंदी के रंग चूड़ियों की खनक बिंदिया की चमक व काजल की प्रतीक्षण रेख बताती है कि इनका सुहाग केवल प्रियतम नहीं बल्कि प्रियाप्रियतम हैं क्योंकि वे इनके लिए कोई स्त्री पुरुष का भेद लिए भिन्न देह हैं ही नहीं।सहचरियों के प्राणधन व प्राणनाथ तो युगलवर हैं अभिन्न एकरस एकरूप सदा मिले हुए युगल।इन भोली सखियों ने इनको कभी अभिन्न ना देखा ना सोचा।तो चली हैं ये सब अपने युगल सुहाग की मंगल कामना के सुहृद सुमंगल गीत गातीं।
इन्हें युगलवर के अतिरिक्त कोई दिखता ही नहीं।रस बरसा कहाँ बरसा किसके लिए बरसा किसी से कोई लेना देना पूछना कहना नहीं।अपने युगल के सुख के लिए बस आ गई हैं उन्हें जगाने।
यमुना जु पहले ही अपने आँचल में भोर के ताज़ा पुष्प भर लाई हैं और प्रेमरस से सराबोर उच्छिलत हैं अपने प्रियाप्रियतम रूपी सुहाग के चरण छूने के लिए।वहीं सखियाँ निकुंज की झलक पाते ही मंद मंद मुस्काती हैं और फिर ठिठोली करतीं ज़ोर से हंस देतीं हैं।
ओह!अच्छा तो हमें वहाँ प्रेम रस मद चखा कर श्यामाश्याम जु खुद प्रेम मद में डूबे हुए हैं।
और इन्हें देख श्यामा श्यामसुंदर जु की हालत!
आहा।।
जय जय श्यामाश्याम।

मेहंदी भाव-14 समाप्त
क्रमशः

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात