गोपियों का निरुपाधि प्रेम
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जगत जननी श्रीराधा, श्रीकृष्ण भगवान की प्राणाधिका हैं। श्री कृष्ण स्वरूपा भगवती श्री राधा बहुत से लोगों के लिए पहेली बनी हुई है, कि भगवान कृष्ण के साथ उनका विवाह नहीं हुआ तो ऐसा कौन सा रिश्ता है जो हर बार रूकमणी जी का, उनकी रानियों का नाम नहीं आता उनके साथ। राधा रानी जी का ही नाम क्यों आता है ? कृष्ण राधे कोई नहीं कहता, सब राधे-कृष्ण ही कहते है.
राधा जी के अनिर्वचनीय तत्व रहस्य को कोई जब तक जान नहीं लेता तब तक ये पहेली ही बनी रहेगी और उनके तत्व को जान लेना इतना आसान नहीं है। क्योंकि ये तो साधन राज्य की सर्वोच्च सीमा का साधन है. सिद्ध राज्यों में समस्त पुरुषार्थों में परम और चरम पुरुषार्थमय है. उसके लिए उस प्रेम राज्य, साधन राज्य में प्रवेश जरूरी है.
और जब गोपी रहस्य ही परम गुह है, इतना गोपनीय है तो फिर राधा जी को कोई कैसे जान सकता है? उनकी बात ही क्या है। लोगों की समझ में नहीं आ सकता, कि मोक्ष तक कि कामना ना रखकर ,भगवान से बिना कोई कामना, बिना मोक्ष तक की कामना बिना, जिस भगवान की भक्ति करना या जिससे प्रेम करें, उससे कभी कुछ ना चाहें लोग कहते है ये कैसी भक्ति है ? कि गोपियाँ कुछ चाहती ही नहीं है, अपने लिए कभी कुछ नहीं चाहती. तो लोग कहते है, ये कैसी भक्ति ? कैसा प्रेम ?
सबसे आश्चर्य की यह बात है कि इस भक्ति या प्रेम में श्रृगांर और भोग प्रत्यक्ष देखने को मिलता है. यद्यपि उसमें गोपियों का अपना सुख नहीं है।
उनका श्रृंगार, सजना, उनके हाव-भाव श्रृगांर सभी भगवान के सुख के लिए है। वो प्रेमास्पद के लिए है.
उनकी हर श्वास में, उनकी सूक्ष्म वृत्ति मे और शरीर की प्रत्येक क्रिया में सहज ही, केवल भगवान के सुख के लिए है।
फिर भी इस प्रकार त्याग और समस्त भोगो का एक साथ रहना सबका साथ में रहना, लोगों की बुद्धि भ्रमित कर देता है, कि गोपियाँ अपना सब कुछ त्याग चुकी है, उसके बाद भी उस श्रृगांर रस के बारे में समझ नहीं पाते, कि फिर इतना सज श्रृंगार क्यों ? जब सब कुछ त्याग चुकी है, फिर इन आभूषणों से इतना मोह क्यों ?
वो ये नहीं समझ पाते कि उनका ये श्रृगांर तो भगवान के लिए है. गोपिया इन संसारिक भौतिक चीजों से उपर उठ चुकी है, वे इसलिए सजती है, कि भगवान कृष्ण कि खुशी है इसमें।
रास-लीला कोई साधारण लीला नहीं है रास-लीला भगवान की बहुत दिव्य लीला है।
वास्तव में रास लीला परम गुह है और गोपियाँ साधना की परम सीमा पर हैं।
परन्तु लोग उसे साधारण काम लीला समझते है. यहाँ तक कि उदाहरण भी दे देते है. लोग कहते है जहाँ कही सामान्य स्त्री पुरुष को खड़ा देखते है तो कहते है कि वहाँ रास लीला चल रही है। लेकिन वास्तव में वे उस रास लीला के अधिकारी तो क्या उसे सुनने के भी अधिकारी नहीं है, इसीलिए अपनी कलुषित बुद्धि से उसमें दोष ढूँढते रहते है।
परन्तु त्यागमय प्रेम कि जो प्रकाशित बुद्धि से देखते है वो भगवान की ओर उर्ध्वातम बढते जाते है. और वे कौन है वे संत है. और वे संत हृदय हैं जो अपने दुख से जरा भी नहीं घबराते है. ना अपने लिए सुख चाहते है, परताप देखकर पिघल जाता है, पर जो अपने सारे सुख साधन को, परताप के नाश में लगा देते है वे ही “संत” है.
तुलसीदास जी ने कहा है –
“संत हद्रय नवनीत समाना, कबही परिक है ना जाना।"
"निज परिताप द्रवित नवनीता, परदुःख द्रवित संत सुपुनीता”
मतलब जैसे माखन पर आच लग जाए तो वो पिघल जाता है. ऐसे ही संतो का हृदय उस माखन के समान ही है। वो दूसरों का दुख नहीं देख सकते है, उनका जीवन ही परोपकारी है।
उसका अपना कोई स्वार्थ नहीं सुख नहीं है. उसकी कही मोहमाया नहीं है, वो जीता है तो परोपकार के लिए। संत का दूसरा नाम “परोपकार” है।
जो पर दुःख कातर हैं और परसुख परायण है, वे ही वास्तव में संत है। क्योकि घर छोडकर जाने और भगवा पहन लेने से संत नहीं बन जाते।
वन में भी, घर की याद आए, तो वो वन जाना किस काम का? घर में रहकर हमारा मन परमात्मा में लगा रहे, उसी के चिंतन में रहे, तो घर में रहते हुए भी वो साधारण व्यक्ति “संत” है।
संत के लिए कोई भगवा चोले पहनने की जरूरत नहीं है. संत शरीर से नहीं होता, वो तो आतंरिक भाव, अपने स्वभाव से, अपने गुणों से होता है।
गोपियां सतं ही तो हैं। उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं है. अगर साज श्रृंगार है तो कृष्ण के लिए है क्योकि उनके पास अपने बचाने के लिए कुछ भी नही है. भोग कामना, त्याग करने के बाद एक कामना बचती है. वो है “मोक्ष” की कामना। व्यक्ति सब कुछ त्याग देता है पर ये कामना नहीं छूटती कि मेरी मुक्ति हो जाये और ये कामना जब तक है शरीर त्याग नहीं माना जाता।
🌹परन्तु गोपियों में ये सर्व त्याग सहज ही था. वे सच्ची प्रेमिकाए थी, इसी से वे वेद-धर्म, लोक-धर्म, लज्जा, धैर्य , स्वजन, देह-सुख, आत्म -सुख, सब का सहज त्याग कर दिया, सिर्फ कृष्ण के लिए।
अनन्य भाव से कृष्ण का भजन करती थीं और इतना होने पर भी उन्हें अपने इस महान सूर-मुनिमन उच्च स्वरुप का, उच्चकेाटि का ज्ञान नहीं था, कि हम कौन-सी मुनि-देह से भी ऊपर, गोपी देह को प्राप्त हो चुकी है ।
इसका उन्हें ज्ञान ही नहीं था, कि वो भक्ति के उच्च शिखर पर हैं। वो देह से उपर उठ चुकी थी। इसलिए गोपी प्रेम को “निरुपाधि प्रेम” कहा गया, सारी उपाधि उनके लिए छोटी थीं।
व्यक्ति को सब कुछ छोड देने के बाद कहीं ना कहीं कोई चाह रहती है, उसे लगता है कि मुक्ति और मिल जाए बस जन्म ना लेना पडे संसार में। पर जहा मुक्ति भी चाह ना हो वहीं सच्चा प्रेम और सच्चा प्रेम है। जरा सी भी चाह बाकी है तो ये समझना कि अभी समर्पण पूरा नहीं है। इसलिए संत कहते है कि गोपियां के प्रेम को कोई उपाधि नहीं दी जा सकती। वो तो सारी उपाधियों से परे हैं। इसलिए उनके प्रेम को “निरुपाधि प्रेम” कहा गया।
और गोपी भाव में पहुॅच कर साधक सब कुछ त्याग कर सकता है. उसे पहले वो कोई त्याग नहीं कर सकता। और अगर हम देंखे जो बृहस्पति जी के शिष्य उद्धव जी थे. वो गोकुल से लौटकर बोले कि हमें तो गोपियों के चरणों की रज चाहिए बस उनके पद की रज मिल जाए. इसलिए प्रभु वृंदावन में हमें कुछ भी बना दो।
वास्तव मे गोपियों का जीवन ही धन्य है। उनके पास भगवान प्रतिक्षण है, उनके चिंतन में. गोपियों में राधा रानी जी प्रमुख हैं। उनसे ही सारी गोपिया बनी हैं। उन्ही की तरह उनका रूप है स्वभाव है।
गोपियों के प्रेम में कितना त्याग है. वो भगवान कृष्ण को अपना आराध्य नहीं मानती, वो राधा जी को अपना आराध्य मानती हैं और जब भगवान राधा जी को मिला देते है। उसे अपनी सुखमय का क्षण मानती है उनका स्वभाव सहज ही ऐसा है।
सारी उपाधियां, गोपी प्रेम के आगें बहुत छोटी हैं। उनका प्रेम "निरुपधि प्रेम" है. ऐसा दिव्य और अलौकिक प्रेम है जिसके आगे संसार कि मुक्ति–भुक्ति भी गोपियों के में चरणों में लोट लगाती है कि मेरी मुक्ति हो जाए, पर हमारी मुक्ति कब होगी जब वो गोपी के चरणों की रज हमारे मस्तिक में लग जाए...
धन्य हैं वह ब्रज-गोपिकायें, धन्य है उनका प्रेम, धन्य हैं ब्रजधाम, धन्य हैं ब्रज रसिक जन जिन्हे ब्रज-रस प्रेम की अनुभूति हुई।
Jskg..
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