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प्रेमावली लीला 36 से 40

और भोग नहिं प्रेम सम, सबकौ प्रेम सिंगार।
तेहि अवलम्बे रसिक दोऊ, सकल रसन कौ सार ||36||

संसार में प्रेम के समान अन्य कोई भोग्य वस्तु नही है। सब भोग्य वस्तुओं का प्रेम ही श्रृंगार है-भूषण है। रस के पारखी दोनों श्री श्यामाश्याम सम्पूर्ण रसों के सार रूप प्रेम रस का आश्रय किए हुए हैं ||36||

प्रेम मदन मद किए रद, और सकल सुख जेत।
कुँवरि सुभायन रँग रँग्यौ, छिन-छिन होत अचेत ||37||

जिस प्रेम ने मदन(कामदेव) के गर्व को तथा अन्य सम्पूर्ण सुखो को निरर्थक बना दिया है, वह प्रेंम कुँवरि श्री राधा की सहज प्रेम चेष्टाओं के रंग में रँग कर क्षण-क्षण में अचेत होता रहता है ||37||

लाल नैन भए लाल के, रँगे रँगीली लाग।
अन्तर भरि निकस्यौ चहत, इहि मग मनौ अनुराग ||38||

रंगीली लगन में रंग कर श्री श्यामसुन्दर के नेत्र लाल हो रहे हैं। ऐसा मालूम होता है मानो अनुराग उनके हृदय को पूरित करके नेत्रों के द्वार से निकलना चाहता हो।(अनुराग का रंग लाल माना जाता है) ||38||

लै सुंरग जावक सुकर, चरनन चित्र बनाय।
मृदु अंगुरिनु की छवि निरखि, पुतरिन सों रहे लाय ||39||

श्री श्यामसुन्दर अपने कर कमलों में लाल रंग का जावक(महावर) लेकर उसके द्वारा श्री प्रिया के चरणों में चित्र रचना करते हैं और कोमल अँगुलियों की छवि को देखकर चरणों को अपने नेत्रों की पुतलिओं से स्पर्श करते रहते हैं ||39||

दसन खण्ड अति रीझि कै, पिय मुख बीरी दीन।
सीवाँ दोऊ अनुराग की, भए एक रस लीन ||40||

श्री श्यामसुन्दर के इस अद्भुत प्रेम पर अत्यन्त रीझकर श्री प्रिया अपने दसनों से खण्डित करके अपने प्रियतम के मुख में पान की बीड़ी देती हैं अौर अनुराग की दो सीमायें (श्री श्यामाश्याम) एक ही रस में लीन हो जाती हैं ||40||

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