🌿🌻~प्रेमावली लीला~🌻🌿
(श्री हित ध्रुवदास जी कृत प्रेमावली लीला - कुल 130 दोहे)
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हाव भाव लावन्यता, कही सकल जे कोक।
निशि दिन कर जोरे तहाँ, सेवत नैनन नोक ||66||
कोक शास्त्र में हाव-भाव की जिन सुन्दरताओं का वर्णन मिलता है बे सब रात दिन हाथ जोड़कर श्री प्रिया के नेत्रों की नोक का सेवन करते रहते हैं ||66||
अति सुदेश रह्यौ झलक कैं, वेंदा सुरंग रसाल।
मनो सुहाग अनुराग कौ, प्रगट विराजत भाल ||67||
श्री प्रिया के ललाट पर लाल रंग का रसमय बेंदा अत्यन्त सुन्दरता के साथ झलक रहा है। उसको देखकर ऐसा मालूम होता है कि श्री प्रिया के भाल पर अनुराग का सुहाग(सौभाग्य) प्रकट रूप से विराजमान है ||67||
नख सिख पट भूषन बने, कहि न सकत कछु रूप।
सीस फूल सिंगार कौ, मानौ छत्र अनूप ||68||
श्री प्रिया के श्री अंग पर नख से शिखा पर्यन्त वस्त्र और आभूषण धारण हो रहे हैं। उनके इस समय के सौन्दर्य का वर्णन करना संभव नही है। उनके मस्तक पर शीशफूल धारण हो रहा है, जिसको देखकर ऐसा मालूम होता है मानो श्रृंगार का अनुपम क्षत्र है ||68||
झलक कपोलन कहा कहौ, मुख पानिप बहु भाँति।
अखियाँ रपटत चितै तहाँ, डीठ नहीं ठहराति ||69||
श्री प्रिया के मुख पर लावण्य की तरंगे उठ रही हैं अौर उनके कपोलों की झलक मुझसे कही नही जा रही है, क्योंकि कपोलों पर दृष्टि ठहर नहीं पाती अौर आँखें फिसल कर गिर जाती हैं ||69||
नासा बेसर फबि रही, शोभा की मित नाहिं।
मनो मीन तहाँ थरहरै, परयौ रूप जल माहिं ||70||
श्री प्रिया की नासिका में बेसर शोभायमान है जिससे उनकी छवि में अमित वृद्धि हुई है। श्वासों के साथ हिलती हुई बेसर को देखकर ऐसा लगता है मानो रूप-जल में पड़ा हुआ मीन तड़प रहा है ||70||
बन्यौ कपोल पर असित तिल, अलक रही तहाँ आइ।
प्रकट लाल कौ मन मनौ, परयौ फन्द बिच जाइ ||71||
श्री प्रिया के कपोल पर काला तिल शोभायमान है और उस पर बालों की एक लट आकर झूल गई है। उसको देखकर ऐसा लगता है मानो श्री श्यामसुन्दर का श्याम मन फन्दे में फँस गया है ||71||
नैन अधर कुच कर चरन, झलकत नए तरंग।
कनक वेलि मनो फूलि रही, नख सिख कमल सुरंग ||72||
श्री प्रिया के नेत्र, कुच, कर(हस्त)और चरणों में रूप-सौंदर्य के नए-नए तरंग झलकते रहते हैं जिनको देखकर ऐसा लगता है मानो कनक लता नख से शिखा पर्यन्त लाल कमलों से फूल रही है ||72||
प्रिया बदन वर कञ्ज पर, भ्रमत भृंग पिय नैन।
छवि पराग रस माधुरी, पीवत हू नहिं चैन ||73||
श्री प्रिया के मुख कमल पर प्रियतम के भृंग रूपी नेत्र मँडराते रहते हैं और मुख-कमल के छवि पराग की रस माधुरी का अतृप्त पान करते रहते हैं ||73||
ठौर ठौर पिय रचत हैं, आसन कुसुम रसाल।
को जानै कहाँ बैठि हैं, अलबेली नव बाल ||74||
श्री श्यामसुन्दर श्री वृन्दावन की कुञ्जों में स्थान-स्थान पर सुन्दर कुसुमों के आसनों की रचना करते रहते है। वे इस सन्देह में पड़े रहते हैं कि अलबेली नव बाल श्री प्रिया न जाने कहाँ बैठेंगी ||74||
समुझि हेत पिय कौ तबहिं, बैठी तहाँ मुसिकाइ।
पिय ग्रीवा भुज मेलि कैं, अँग अँग रही लपटाइ ||75||
प्रियतम का इस प्रकार का प्रेम देखकर श्री प्रिया मुसकाकर एक आसन पर बैठ जाती हैं और अपने प्रियतम की ग्रीवा में भुजा डालकर उनका सर्वांग आलिंगन कर लेती हैं ||75||
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