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सेवा कैसे हो ? आदि

सेवा

"सेवा"
प्रथम तो सेवा एक सौभाग्य है । कोई कर्म नहीं , जै जै की ही कृपा है । कर्म कहने में लालच है , लोभ है । और सौभाग्य -कृपा मान लेने में रस और नित्य सेवा का नित्य नव आनन्द।
कर्म क्यों नही , और सौभाग्य क्यों ? शायद शंका उठे । अपने द्वारा प्रारब्ध आदि से अर्जित कर्म नहीँ , सहज मिला ईश्वर का प्रसाद ही सेवा है । सेवा परीक्षा नही , अपितु परम् लक्ष्य ही है ।
अग़र खच्चर घोड़े की दौड़ में दौड़े , तो खच्चर के लिए उन लम्हों को भरपूर जी लेने का समय है । खच्चर अपने प्रयास से घोड़ो के संग नहीँ दौड़ सकता ।
सेवा में सबसे अधिक प्रबलता सच्ची दीनता से है । आज हर शब्द के संग सच लिखना कहना पड़ता है । क्योंकि अभिनय देखते देखते अभिनय सिर चढ़ चूका है । सेवा चाकर होना कहती है , चाकर के अभिनय को नहीँ । वस्तुतः सच्चा चाकर ।
सेवा पर बहुत सवाल आये , तरह-तरह के , परन्तु कुछ कहते न हुआ । क्योंकि पहले भी कहा जब याद के लिए कहा कि कथित नहीँ , स्वभाविक स्थितियां हो । अभिनय नहीँ  , जो हृदय से तत्क्षण स्फुरित हो । सेवा भी इस तरह है , सेवा के पथ को रट लिया जाएं , आदेश ही मान लिया जावें तो भाव न्यून और क्रिया मुख्य होगी । अतः जिसने भी पूछा यें ही कहा - गुरु पथ आदेश और भगवतभाव अनुरूप करिये बस ।
सेवा पर प्रश्न नहीँ , भाव हो । क्रिया की नहीं भावना की प्रधानतायें हो ।
भगवान की सेवा के लिए सम्बन्ध हो , जैसे स्वामी-दास , पिता-पुत्र , गुरु-शिष्य , माँ-पुत्र या पुत्री । मित्र , भाई-बहन और प्रेमी - प्रियतम् , पति - पत्नि । जैसा भाव सहज उनके लिए होवें , वैसी सेवा । यहाँ क्रिया एक भी हो तो भीतरी भाव स्थितियां भिन्न होगी , पत्नी की सेवा और दास की सेवा में फ़र्क है ।
माँ के परोसने , चाकर के परोसने , मित्र के परोसने और प्रियतम् को पवाने में भाव से भेद है । क्रिया एक है कि भोग पवाया गया , परन्तु भाव भिन्न है । अतः सम्बन्ध हो । गहन सम्बन्ध । और उस सम्बन्ध को कहा या माना ही ना जाये , जिया जाएं । जैसे मित्र है तो जैसे हर बात पर मित्र से परामर्श लिया जाता है , वैसा ही हो । और जैसे वात्सल्य भाव से आप माँ या पिता और ईश्वर आपके लाडले लाल है तो वैसा ही जिया जाएं । हर बात नन्हें बालकों को नहीं कही जाती , अपनी समस्याओं को बालकों से ना कह केवल उन संग लाड लड़ाया जाता है तो वैसा ही माने । अर्थात् सम्बन्ध में फिर ऐसा नही कि भाव कच्चा हो । भाव पूर्ण हो , बस । सम्बन्ध ऐसा हो कि समीपता और आवश्यकता अधिक हो । अग़र आप को मित्रों की इतनी आवश्यकता ही नहीँ , उन बिन आप रह सकते है तो मित्र ना बनाये । ऐसा सम्बन्ध हो जिसमें पल भर संग ना होना भीतर से व्याकुल कर दे । सेवा में केवल श्री विग्रह को धातु का मान केवल बनावटी ना रह । हृदय से साक्षात् संगी मान जिया जाएं ।
सेवा के सम्बन्ध में अभी जिस सवाल से लिखने का भाव हुआ वो सवाल है - जहाँ सेवा मिल गई वहाँ कृपा है , तो अगर किन्हीं प्रेमियों को सेवा ना मिली , या ना मिल सकती हो , और वहाँ प्रेम भी हो , तो क्या वहाँ कृपा नहीँ ?
सेवा के कई स्तर है , कितने .... यहाँ संख्या ना कही जाएं ? एक सेवा है जो हमनें लिखित की । और एक सेवा वो है , जो उनके प्रेम में वें ही आदेशित करें । किसी भी रूप में , या भाव में , अतः प्रेमास्पद का रस की दृष्टि और स्वरूप से सब प्रेमी जन को पृथक सेवा दी गई है । किसी को लौकिक , किसी को पारलौकिक भी ।
उनके स्वरूप की सेवा रस और आनन्दमयि है । और इस व्यवस्था में कैसी भी सेवा , सेवा ही है । परन्तु स्मरण रहें , चुनाव है तो निकट सम्बन्ध हो । या समता और क्षमताएं हो तो ऐसी भी सेवा भाव वर्धक है जहाँ उन्हीं की सेवा में उन्ही को अज्ञात रखा जाएं । जैसे किसी i.a.s. के भवन का वो माली जो जब आता है तब साहब सोयें होते है । बाग़ की सुन्दरता तो दिखती हो पर बागवान कौन है ? यें ना पता हो । यहाँ सेवा होगी और प्यास भी , बेताबी भी । वरन् सेवा में रस वर्धन के लिए अद्वैत का जो द्वेत हुआ वहाँ सेवा भी कर्म और अहंकार हो सकती है । सेवा में सेवक और स्वामी दो है , जो कि है एक ही । परन्तु रस वर्धन के लिए दो का आभास जरूरी है । सेवा में जीव का भी रस वर्धन है और ईश्वर का भी । एक से दो हुआ ही रसवर्धन हेतु है । जीव ईश्वर का अंश और तद्रुप ही है । यें जान कर प्रति क्रिया , भाव को सेवा मान ही अर्पण करना भी सेवा है । कि मैं जो हूँ तुम ही तो हूँ , तुमसे ही हूँ । और तुम्हारे लिए ही हूँ अतः किसी कार्य को सेवा किसी को कर्म कह मुझे और स्व को पृथक ना करें । जो बन पड़े वहीँ सेवा । काया , वाणी, मन और इंद्रियों की प्रत्येक क्रिया-भाव आदि सेवा हो जाएं । तब कुछ ऐसा होगा ही नहीं जो सेवा ना हो । प्रेम की गहन स्थितियों में स्व शरीर की निद्रा भी सेवा हो जाती है । जब आपकी किसी क्रिया , किसी भावना से स्व की नहीँ प्रियतम् के ही सुख की आस हो । तब सर्व जीवन और कामना आदि भी सेवा है । भाव अग़र स्व ना हो कर तत् (जै जै) ही है तो । प्राप्त वस्तुएं शरीर आदि  अपने उपभोग में ना लग सदुपयोग में होने लगे । उन्ही की चाहना से क्रियमान होने लगे तो सेवा ही है । तब सेवा को सौंपा नहीं जाता , सर्व अर्पण हो पुनः पुनः अर्पण कैसा ?  तब पुष्प ही नहीं, बगिया ही ईश्वर हेतु हो जाती है । कुँज और निकुँज का अध्यात्म भी यें ही भाव रखता है। सर्व प्रकारेण प्रियतम् की भोग्य वस्तु हो जाना ।
अतः अग़र किन्हीं प्रेमियों को स्वरूप की सेवा ना मिली ऐसा दिखाई देता है तो भी वहाँ उनके हेतु जो भी सम्पादन और भावना होगी वह सेवा है । बहुत बार किन्हीं को विरहानन्द मिलता है , स्वरूप सेवा से मिलने वाली तृप्ति ना होने पर व्याकुलता प्रबल होती है और चारों और एक आवरण हो जाता है और इस तरह के व्याकुल चातर पंछियो से प्रेमियों का स्मरण , सम्बन्ध या स्पर्श सहज रूप से रस की वृष्टि करने लगता है । उनके सच्चे प्रेमियों में एक भावना सुलभ होती है , तत्सुख । यें भावना उन्ही के प्रेम की कृपा है वरन् स्व की भावना रह ही जाती है । ऐसी स्थिति में अपनी किस क्रिया से प्रियतम् के किस सेवा कार्य की सिद्धि हो रही है , यें भी अज्ञात रहता है । और नित्य क्षण अज्ञात सेवा में रह कर सेवक होने की लालसा जीवित रहती है ।
सेवा , से ऊपर कोई प्राप्ति नहीँ , सम्बन्ध होने पर कर्म सेवा और सम्बन्ध ना होने पर सेवा कर्म हो जाती है । आज हम मांग बनी नहीँ रहते , सो सेवा में भी लोभ है । सेवा में अमुक वस्तु या पदार्थ से अमुक प्राप्तियाँ होती है यें जान कर की सेवा कर्म है । और ऐसी सेवा राजसिक सेवा है जहाँ सेवा के विपरीत कामनाये है । उन कामनाओं की पूर्ति में सेवा शून्य हो जाती है । यहाँ वैसा ही सम्बन्ध है जैसा संसार में सेवक से होता है । और अपने हित और अन्य के अहित में की सेवा तामसिक सेवा है । जहाँ अपना मनोरथ सिद्ध हो और अन्य किसी का वहाँ अहित हो अथवा स्वयं की विजय अन्य की पराजय की भावना हो , यें तामसिक सेवा है । व्यक्ति अपनी अमानवीय भावनाओं को ईश्वर के लिए भी प्रयोग करने लगता है । जैसे कोई प्रतियोगिता में अन्य की असफलता और स्वयं की सफलता की भावना से की गई सेवा और ऐसी ही सेवाएं ।
अतः सेवा परम् स्थिती है । सच ही है , उनका वही होता है जिसे वें चाहे और वहीँ उनका स्पर्श कर सकता है । पग दबा सकता है जिसे वें चाहे ।
आप अग़र श्री विग्रह सेवा करते है तो नित्य उनसे वार्ता भी करें सम्बन्ध को गहरा करें। और श्री विग्रह से दुरी होने पर मानसिक सेवा करें । अग़र श्री विग्रह सेवा नही और है भी तो मानसिक सेवा भी अवश्य करें । भाव से सम्पूर्ण विस्तार से भव्य और भावमय मानस सेवा सर्वोत्तम है । मानसिक सेवाओँ में सरकार के श्री अंगों की पृथक - पृथक सेवा करें , जैसे पग दबाना । और शरीर में सुगन्धित द्रव्य आदि की मालिस आदि । अपने द्वारा की सेवा में दीनता बनी रहे , और अपने द्वारा की सेवा में अभाव ही अनुभूत् होवें । वरन् तृप्ति अहम् की ओर घूम जायेगी । अभाव  की भावना में भाव रस दृढ होगा । अपनी ही मानस फुलवारी के पुष्पो को अयोग्य मान कर व्याकुल होने में और इस भाव के विस्तार में ही रस वर्धन होने लगेगा ।और दीनता सजीव होने लगेगी , नयन झरने लगेगें । विशेष सेवा की भावनाओ में बहने में प्रत्यक्ष छुवन भी अनुभूत् होगी और बाद में आभास होगा कि कितनी विशाल कृपा घटी तब और हमें बोध भी ना रहा । सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम । शंका हो , कोई भावना हो तो मन में ना रखे क्योंकि मन ही तो वो परम् वस्तु है जिससे सेवा होनी है ।

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