Skip to main content

भगवत् वार्ता भीतर की

सत्यजीत: साहिब !!

तुम फिर आ गये !

जी हुज़ुर ...

तुम अज़ीब हो ! यहाँ कायनात ना जाने क्या क्या ले कर मुझतक आती है ! और तुम ... केवल सवाल ... वो भी किसी ओर के ! सवाल भी अपने नहीं तुम्हारे पास ... और इन सवालों को तो कोई भी निपटा सकता है ... हर बात के लिये मैं ही ... क्युं ?  यें सब अजीब नहीं लगता तुम्हें ... जानते हो जल्द ही किसी पागलखाने तक जाने को हो ! ...
कहो क्या सवाल है ...

जै जै ! ... ...

कहो ... ?? क्या है नया ?

हृदय से सदा कठोरता कैसे हटाते है ?

ओह ! किसका सवाल है ? तुम्हारा ? हर सवाल अपना ही बताते हो ?

जी ! वो क्या है कि मुझसे आपको छोडा नहीं जाता ! तो बहाने तलाशने लगता हूँ ... जो भी हाथ लगा .. आप तक ! आपको सताना नहीं ! पर ... आप की बातें सुननी होती है ! आप जो कहते हो सदा अलग होता है ! हाँ पर उसे किसी ओर से ज्यों का त्यों नहीं कह सकते ! मुझे जब तक यहाँ होना है ... कोई तो बहाना चाहिये ही ... कि प्यास बनी रहे ! अपनी बुद्धि लगाने की दशा नहीं ... आप नहीं कहते कुछ तो मैं निरुत्तर ही हो जाता हूँ ! आप तो जानते हो कि जब भी कोई सामने होता है भीतर कितना भय होता है ! आप जानते हो मेरे पास कुछ नहीं ! कभी भी सब शुन्य हो जाता है ! अक़्सर यूं ही निरुत्तर हो जाता हूँ ! पर तब भी अच्छा लगता है ! सच कहूं यकीन् ही हो जाता है कि आपको बहुत प्रेम है ! ऐसा अवसर आयें कि मैं सब में उलझु वहीं उसी व़क़्त आप की हरक़तें भीतर तक ऊथलपुथल मचा चुकी होती है ! और बाहर भीतर का तुफान नहीं दिखता ! ...
कभी कभी अचानक आप तन्हां कर महसुस नहीं होते तब का हाल आप जानते हो ...
सब इसलिये कि आप याद रहो मुझे ! मेरा अपना कोई प्रयास ही नहीं ! और यहाँ हर हरकत आप से है ... आपको प्रेम है पर कहते नही ! मुझे भी हो पर आपका प्रेम जैसा हो ही नहीं सकता ... आपको मुझे अपना नहीं बनाना ! आप ही मुझे अपना बना लो ! जब भी दर्द हो और आप भी हो तब दिल दुआ करता है कि दर्द टिका रहे ... बहुत करीब होते हो तब आप ...
आप ना हो और हंसी हो तो अपनी ही हँसी से डर लगता है ...
काश किसी दिन हो मुझे भी आपसे प्रेम ! कह पाऊं कि आपसे मुझे बहुत . ...

बोलो ! रुकते क्युं हो ...

नहीं ! आप बोले ... हृदय कठोर ना हो सदा पिघला रहे क्या करें ?

... .... कभी और ! आज नहीं ...

जी ! ठीक है ... चलता हूँ ..

सुनो ! ... बस याद कर लिया करो कि कोई है जो तुमसे इतना प्रेम करता है कि एक पल तुम्हें छोडता नहीं ... तुम्हारे भीतर ही रहने लगा है ! ... ...

प्रेम की बात क्युं नही हो सकती

प्रेम में होता क्या है ...

प्रेम में तुम नहीं रहते ! अहंकार नहीं रहता !
अहम् शुन्यता होती है ! सो बात नहीं होती उस स्थिति में !

बात करने ! बताने के लिये होना होता है ! जब्कि प्रेम में आप होते ही नहीं !!

फिर भी बात हुई है तो केवल स्मृति ही कही जाती है ... यादें ... पिछली अनुभुती
या फिर कहने वाला वो नहीं जो दिख रहा है दोनों प्रेम में एक हो गये और अब दिख कोई रहा है ... जी कोई रहा है  ...

सच ! यें पल हो तो फिर कोई और आस ही नहीं...
धारणा ... संकल्प ... भविष्य निर्धारण
कामना ... विचार

या

ईश्वर !

दोनों पक्ष में से एक ही मिलेंगें

धारणा ... संकल्प ... कामना क्युं नहीं !

शुन्यता जरुरी है ! धारणा आदि द्वेत
करती है ! आप भी वें भी हो तो धारणा ... कामना आदि सफल हो !
अद्वेत होना ही है ... प्रेम में भी
योग में भी ... ज्ञान में भी ...
ईश्वर का संकल्प पूर्व में ही है ...
जिसकी साक्षी मानव देह !
गर्भ में हुआ है ... और पहला ही
संकल्प विस्मृत हुआ है ....
संकल्प का कायदा है पहला पूरा कर दूसरा लो ... पहला ही पूरा नहीं हुआ ! बल्कि भुल गये पहला ...

जीवात्मा की मानव देह अंतिम सीढी है ! अब या तो ईश्वर या वापिस से क्रमश: ...
किसी भी जीव को नविन संकल्प की
आवश्यकता नहीं ... मानव होना ही संकल्प का चरण है

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात