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आप केवल प्रियतम् हो ।।। बस ।

क्यों माना भी जाए आपकी सत्ता और पद को , आपके वैभव से प्रेम में लाभ कम और बाधा अधिक है । आपकी सत्ता से आपकी प्राप्ति का दर्प (मान) मेरा जाग उठता है । और तब मेरा ही दुर्भाग्य , न ..... न मानना मुझे आपकी ऐश्वर्यता-वैभवता-सत्ता आदि को । ये पीड़ा दायक है । आपके माधुर्य से वंचित होने का पथ है । गोपियों ने जैसे ही माना जगतपति , कर्ता-धर्ता , तो हो गए आप ईश्वर । और हो गए अन्तर्ध्यान । जैसे ही द्वैत हुआ चले जाते हो । अद्वैत आपको मेरे भीतर से पल भर नही जाने देता । तत्वमसि केवलं यें दृष्टि अटल सत्य है परन्तु ईश्वर रूप में नही । आप मेरे हो और सर्वत्र दिख रहे हो , अनुभूत् हो रहे तो दिखते रहो । छूटो न । ....... तो , प्रेम में आपको जैसे ही माना आप कौन हो वहीँ रस -रास -प्रेमलीला सब छुट जाता है । मान , द्वेत , दम्भ आदि होंगे ही आप प्रभु हो और प्रभु मान कर ही रहा जाए । .... यहाँ सम्मान तो होता है । परन्तु आत्मीयता नही घट पाती । सामने होने पर दिल करता है हृदय से लगा लू पर जैसे ही जाना तुम कौन हो तो आंखें चरण छूने लायक भी ना रहती । तुम मेरे हो । सदा मेरे हो । और आप ही हो सदा मेरे अंदर बाहर  ..... भगवान होकर नही । मेरे होकर । हमारे होकर । आपको ईश्वर माना तो आपकी प्राप्ति और प्राप्त प्रेम में अभिमान , दर्प होता ही है।  आप सुलभ , सरल हो । परन्तु माया से प्रतिति दुर्लभ होती है । और यें ही आपकी दुर्लभता , आपकी प्राप्ति आपके प्रेम को पाकर उसे पीने की अपेक्षा उस रस से हट दिव्य अनुभूति करना चाहती है कि मैंने हरि को पा लिया , उन्होंने मुझे अपना लिया । परम् सत्ता हो न , आप तो सत्ताधिकारी से सम्बन्ध में दम्भित होना , अहंकारित होना क्या आपको स्वभाविक नहीँ लगता । और यहाँ गोपी को दोष दिया जाता है परन्तु आप ईश्वर होते ही नही । जगतपति होते ही नही ..... होते तो ज्ञात न होता तो कैसे प्रेमी गोपी .... कैसे अपने प्रेमास्पद से दूर होती । केवल बिहारी होते , केवल बंशी बजाते मोहन तो कैसे किसी रमणी के चित् में परम् की प्राप्ति का भाव आ पाता । यें दर्प-अभिमान-दम्भ में मेरी अपनी तो दीनता ही है अपने  सम्बन्धी के महत्व -स्वरूप- वैभव - ऐश्वरत्व का ही तो अहंकार यहाँ प्रेमी में दिख गया है । प्रेमास्पद कौन है यें जान लेना भी घातक हो गया । केवल आप हमारे और हम आपके रहे इतना जान और मान लेना ही पूर्ण रस को नित्य बनाये रखता है । हमारा प्रेम में मान करना भी आपका तो रसवर्धन ही करता है और इस हेतु संसार दम्भित कहे या अंहकारी वो भी मीठा ही लगता है क्योंकि कहीँ न कहीँ अपने प्रियतम् का रस वर्धन हो रहा है ।परन्तु हमारा रसवर्धन जब है जब सत्ताधिकारी स्वरूप को भुला अपना मान लिया जाये । होंगे आप ईश्वर , होंगे आप प्रभु , होंगे आप संसार के पूजित ठाकुर । पर क्यों हो ? 
आप क्या और क्यों हो ? इससे कोई सरोकार नही । बस आप ही मेरे हो । अपने हो  । कुछ हो तो केवल और केवल हृदय की सांसो से अधिक गहराई में बसे प्राण प्यारे । सुंदर सलोने प्रियतम् , बस । और कुछ नही । आपकी मधुरता के सिवाय किसी रूप और जानकारी से कोई सम्बन्ध नही । रसिकाचार्यों ने केवल माधुर्य रूप पर मन को लगा देना समझाया , सिखाया । परन्तु न जाने कहाँ से रह-रह कर आपका ऐश्वर्य प्रेम में बाधक हो ही जाता है । दर्शन , प्रदर्शन जब होता है जब अपने प्रियतम् में ईश्वर दिखने लगे ।  प्रेम समत्व पर होता है .... समान हो तभी तो हुआ । ईश्वर और जीव का भाव तो आपकी श्रद्धा-पूजा तो कराता है परन्तु रस तो आपका अपना होने में ही है  । ईश्वर मान की जाने वाली पूजा से अधिक रस कभी आपके , कभी मेरे रुठने मनाने में है। तुम बिन जिया जाएं कैसे , कैसे जिया जाए तुम बिन । "तृषित"

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