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कर्म की उत्पति कामना

जैसा कि पूर्व में बात हुई ...
कर्म की उत्पत्ति है कामना , चाह ,  संकल्प । और भगवान ने इन्हे ही दूर करने को कहा । वही नही , सब ने कहा । कामना न करो । गुरु जन । बोधत्व प्राप्त सब ने ।
कामना की निवृति पर जो स्वतन्त्र रूप से क्रिया हो वो कर्म है जिसे ईश्वर स्वीकार करते है ... पर निष्काम कर्म क्यों ? और कौन करें ...
हम निष्काम की बात कर सकते है पर हो नही सकते ।
बल्कि कर्मफल पहले मिल जाये । अथवा तय हो जाये कि इस कर्म का फल मिलेगा ही भले कर्म न हो तो भी तो हम कर्म ही न करे ।
जैसे सरकारी तन्त्र । कर्मचारी । अध्यापक  । तय हो गया फल तो कर्म का ही लोप हो गया । अपितु हर किसी को सरकारी दामाद बनने का स्वप्न भी रहता है ।  क्यों ?
कर्म में नही फल में आसक्ति है ।
जबकि गीता जी में कर्मफल को भूल जाने को कहा है । कर्मफल की चाह रहित होने को कहा है ।
परन्तु बिना कर्म फल मिले तो सब को चाहिए । आज बिना गौ सेवा के हमें दूध मिल रहा है तो हम सेवा से भी दो या तीन पीढ़ी दूर हो गए । करीब 50 वर्ष पूर्व हमारा परिवार गौ पालक रहा ही होगा । अब हमे दूध मिल जाता है बिना कर्म तो .... ।।।
परसों ब्रज के भक्त में दो चरित भगवत् कृपा से सामने आये .... एक में रसिकवर गंगा को भागवत कथा सुना रहे थे । जिसमे गंगा मैया प्रत्यक्ष आती है । और कोई श्रोता नही । दूसरे में रसिकसन्त वृक्ष में कृष्ण भाव रख कर वृक्ष की और मुख कर । वहाँ भी वृक्ष से कृष्ण साक्षात् हो प्रकाशित होते है । छुपके से कथा सुनने वाले एक संत श्रोता उनका दर्श पाते ही मूर्छित हो जाते है । 
अब क्या ऐसा सम्भव है ? निर्विकल्प प्रकृति रूपी भगवन् को ही श्रोता मान क्या भीतरी भगवतरस के गान को निष्काम गाया जा सकता है ।
बचपन से खेल के मैदान में एक लाइन पढ़ी  । खेल को खेल की भावना से खेलो ... तब अवस्थागत छोटा था । कई बार मन्थन किया । इस विचार को पढ़ता और खेल ही न खेल पाया । इसकी गूढ़ता मन्त्रमुग्ध कर जाती । बालपन में खेल को खेल की ही भावना से खेला जाता है । परन्तु इतने बड़े अक्षरोँ में इस बात को लिखना ... विचलित करता ।
अब समझ आया । खेल को भी खेला नहीं जाता । परिणाम की भावनाये और प्राप्तियां न हो तो न खेला जाये । दो देशों के खिलाडी खाली मैदान ,बिना कैमरे , बिना मिडिया कभी खेलते न सुना गया । क्या जिस खेल में इतना रस मिला कि वही जीवन हो चला तो उसे कभी निष्प्रपंच ही खेल लिया जावे । परन्तु यहाँ खेल से नही खेल के पुरस्कारों में प्रीति है । तालियां -दर्शक सब से प्राप्त सम्मान से प्रीत है । खेल को वाकई केवल खेल की भावना से नही खेला जाता । अपितु उस खेल से मिला यश और वैभव किसी और क्षेत्र से मिले तो वही खेल जो कभी तलब था छोड़ दिया जाता है । खेल हो या कर्म भावना अब परिणाम ही है । फल रहित खेल या कर्म हो जाये वहीँ उसी वक़्त सच्चा आनन्द हो । परिणाम की अभीप्सा से परे । परन्तु जिस देश में सरकारी जामा पहन व्यक्ति कर्म हीन हो छात्रो और रोगियों तक की आहुति लगाता रहा है । वहां हम रह-रह कर गीता क्यों सबको दिखाते है ।
गीता जी की पोथी का संरक्षक और गीता जी को जीना दो अलग धारा है । गीता जी को देख कर ही अपराधी सच कह देगें ,अपना अपराधबोध भी , आश्चर्य है । ऐसा जब होता जब गीता के वक्ता और गीता जी से सम्पूर्ण प्रेम होता । और पूर्ण गीता का ज्ञान भी । भोलाभाली न्याय प्रणाली अपराधियों में भी यें भावना रखती है कि गीता जी के समक्ष असत्य नहीं कहा जायेगा ।
निष्काम कर्म को ही सेवा कहा जाता है । और सेवा पाना सौभाग्य है , कर्म नहीं । सत्यजीत तृषित ।

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