सारा जगत् ईश्वर के विराटम् स्वरुप
की चाहत में लगा है |
विराट की विराटता हेतु अपनी सुक्ष्मता
से परिचय हो |
जो तत्व जितना विराट होगा उतना ही
सुक्ष्म भी ... प्रभु की विराटता कही
ना सकती है तो सुक्ष्मता भी नहीं कही
जा सकती |
आत्मा प्रोटॉन न्युट्रान इलेक्ट्रान से
भी सुक्ष्म है तो परमात्मा इससे भी
विरल ...
एक रेत के कण के लाख खण्ड भी
हो तो प्रत्येक ईश्वर ही है ...
जिसका बिखरना ना रुके
जिसका समेटना ना रुके
वहीं प्रभु है ...
सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप में भगवत् दृष्टि
की लालसा हो तब ही प्रत्येक कण
और कण के भी कण में ईश्वर ही अनुभूत्
हो सकते है ।
विराट रूप में दर्शन जब ही सम्भव है
जब सूक्ष्मतम दर्शन होने लगे ।
ईश्वर दर्शन ना दे , यें असम्भव है ।
दर्शन होगा लोलुप्ता (व्याकुलता) अनुरूप
लालसा ही नही तो साक्षात् भी मुर्त लगते है ।
लालसा होने पर मुर्त या अमूर्त सर्वत्र साक्षात् ।
व्याकुलता का महत्व है ।
जिस परम् माधुर्य या परम् विराट के दर्शन
की चाहत हम में है । वो केवल लोलुप्ता
पर निर्भर है । दर्शन तो होते ही है , जै जै
उतना ही अवतरण दर्शाते है , जितनी
प्यास जगी । उतना ही प्रकाश ,
वरन् कोटि सूर्य जिनमें विद्यमान हो उनके
आलोक के सामीप्य का चिंतन भी जीव
को सहन ना हो ।
परन्तु रसशेखर अपने ऐश्वर्य और माधुर्य को उतना
ही प्रकाशित कर कि जितना जीव देख सके निहार सके , उतना ही दर्शाते है । यहाँ जितनी प्यास बढ़ेगी ,
भजन अनुराग बढ़ेगा उतने ही गहरे दर्शन होंगे । एक
ही समय पर अगर दो जीव कम और अधिक उत्कंठा
से हो तो एक ही भगवान का स्वरूप दोनों के हेतु अलग आलोकित होगा ।
अतः नाम सुमिरन, भजन और लालसा
(लोलुप्ता) निकटता बढ़ाते है । दर्शन
सबको होते है , जो प्रेमियों को साक्षात्
अनुभूत् होते है उसी समय समीप खड़े
अन्य को धातु आदि के विग्रह ही दिखाई देते है । विग्रह को मुर्त से साक्षात् दर्शन की दृष्टि
भगवत् कृपा से सुलभ होती है । और उस
कृपा रस को अनुभूत् करने हेतु व्याकुलता
तीव्र चाहिए । आज की व्याकुलता ही कल
रसमय हो प्रीति का रूप लें लेगी । तब
भी व्याकुलता बढेगी और रस बढता जाएगा ।
जिस परम् उज्ज्वल रस के दर्शन की आस
हो । वैसी प्यास भी हो । प्यास की लालसा हो ।
भगवान तो सदा है , प्यास से दर्शन हेतु चक्षु प्राप्त
हो । एक दर्शन मीरा बाईं साँ करती है , और उन्ही
गिरधर को हम भी संयोग देख ही लेते है । परन्तु
प्यास की कमी में रस नही हो पाता ।
बाँकेबिहारी जी के ही दर्शन हरिदास जी करते रहे ,
और वहीँ स्वरूप भगवत् कृपा , स्वामी जी की कृपा
से हमें भी सुलभ है । परन्तु प्रीति की कमी से
असामान्य साक्षात् दर्शन सामान्य से हो जाते है।
कही वैसी प्रीति अवस्था घटे , या कुछ क्षणिक भी
रसमयी लालसा घटे तो कारण केवल "कृपा" ।
संत - भगवंत कृपा ।
सत्यजीत "तृषित"
॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग
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