अद्भुत अंगन की झलक, उठत तरंग सुभाय।
समुझि दशा पिय की प्रिया, रहत छिपाय छिपाय ||21||
श्री प्रिया कें अंगों की अद्भुत झलक में सहज रूप से तरंगे उठती रहती हैं। श्री श्यामसुन्दर इन तरंगों को देखकर विवश हो जाते हैं। यह समझकर श्री प्रिया अपने अंगों को छिपाती रहती हैं ||21||
प्रीतम प्यासे रूप के, सो रस कह्यो न जाय।
नैन रूप ह्वै जाँय जो, प्यास न तऊ सिराय ||22||
प्रियतम श्री श्यामसुन्दर के हृदय में श्री प्रिया के रूप-सौन्दर्य की ऐसी अद्भुत प्यास है कि उसका वर्णन करना सम्भव नहीं है। यह प्यास इस प्रकार की है कि प्रियतम के नेत्र यदि रूप ही बन जाँय तो भी ये शान्त होने वाली नहीं है ||22||
अद्भुत रूप विलास सुख, चितवत भूले अंग।
सहज सिंधु सुख में परे, नख शिख प्रेम अभंग ||23||
श्री प्रिया के अद्भुत रूप की तरंगों के सुख को देखकर श्री श्यामसुन्दर को अपनी देह विस्मृत हो गई है। वे सहज सुख के सिंधु में पड़ गए हैं और उनके श्री अंग नख से शिखा पर्यन्त अभंग प्रेम पूरित हो रहे हैं ||23||
नयो नेह नेही नए, नयौ रूप सुख राशि।
नयौ चाव विलसैं सहज, परे प्रेम की पाशि ||24||
श्री श्यामाश्याम का प्रेम नित्य नवीन है, वे स्वयं नित्य नवीन हैं अौर सुख की राशि उनका रूप सौंदर्य भी नित्य नवीन है। वे प्रेम के बन्धन में बँधे हुए नित्य नवीन चाव के साथ उसका उपभोग करते रहते हैं ||24||
सहज प्रेम के सिंधु में, दोऊ करत कलोल।
भरि-भरि रस हुलसत हियौ, सुख की उठत अलोल ||25||
दोनों श्री श्यामाश्याम सहज प्रेम के सिंधु में क्रीड़ा करते रहते हैं। उनका हृदय रसपूरित होकर उल्लसित होता रहता है और उसमें सुख की तरंगे उठती रहती हैं ||25||
रचि रचि बीरी देत पिय, महा प्रेम की राशि।
सर्वस है जिनके यहै, चितवन कै मृदु हासि ||26||
पिकदानी लीने कुँवर, चितवत मुख की ओर।
रहे उगार की आस धरि, ज्यों प्रति चन्द चकोर ||27||
मन-बच-कायिक एक रस, धरैं महाव्रत प्रेम।
प्रान प्रियहि सेवत कुँवर, याही सुख कौ नेम ||28||
मन,वाणी, और कर्म को एक रस रखकर तथा प्रेम का महाव्रत धारण करके श्री श्यामसुन्दर अपनी प्राण प्रिया का सेवन करते रहते हैं और इसी सुख में निमग्न रहते हैं ||28||
प्यारी सर्वस लाल कै, लाल प्रिया के प्रान।
सहज प्रेम दुहुँ में बन्यौ, फीके भए रस आन ||29||
श्री श्यामसुन्दर की सर्वस्व श्री प्रिया हैं और श्री प्रिया के प्राण उनके प्रियतम हैं। दोनो में सहज-प्रेम है, और अन्य सब रस उनके लिए फीके हो गए हैं ||29||
मन्द मन्द मुसिकात जब, बेसर तरल तरंग।
चितै चित्रवत् रहे पिय, सिथिल भए सब अंग ||30||
श्री प्रिया जब मन्द-मन्द मुसकाती हैं और उनकी नासिका में धारण की हुई बेसर जब स्वास की पवन लगने से हिलने लगती है तब उसको देखकर श्री श्यामसुन्दर चित्रवत् रह जाते हैं अौर उनके सम्पूर्ण अंग शिथिल हो जाते हैं ||30||
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