महा मोहिनी मन हरयौ, तन डोलत तिन संग।
बोलत नहिं चितवत मनहि, बस्यौ जाय किहि अंग ||46||
श्री प्रिया के रूप सौंदर्य की महा मोहिनी ने श्री श्यामसुन्दर का मन हरण कर लिया है अौर उनका मन रहित शरीर श्री प्रिया के साथ लगा हुआ घूमता रहता है। वे कुछ बोलते नही हैं और केवल यह अनुसन्धान करते रहते हैं कि उसका मन जाकर श्री प्रिया जी के किस अंग में बस गया है ||46||
बिनु देखे देखत न कछु, छवि छायौ उर ऐन।
कुँवरि राधिका लाडिली, पिय नैनन के नैन ||47||
जिनके हृदय और नेत्र श्री प्रिया की छवि से छाए हुए हैं वे श्री श्यामसुन्दर वही देखते हैं जो श्री प्रिया देखती है। इस प्रकार लाडिली श्री राधा कुँवरि अपने प्रियतम के नेत्रों की नेत्र हैं ||47||
जहँ लगि सुख कहियत सकल, सुनि ध्रुव कहत विचारि।
सहज प्रेम के निमिष पर, ते सब डारे वारि ||48||
श्री ध्रुवदास कहते हैं कि मैं यह बात बहुत विचार पूर्वक कह रहा हूँ कि संसार में जितने भी बड़े से बड़े सुख हैं वे सब सहज प्रेम सुख के एक क्षण मात्र के अनुभव पर न्योछावर किये जा सकते हैं ||48||
यह सुख समुझन कौं कछू, नाहिन आन उपाय।
प्रेम दरीची जो कबहुँ, सहज कृपा खुलि जाय ||49||
सहज प्रेम के इस सुख को समझने का कोई उपाय नही है। सहज कृपा के बल से यदि मनुष्य के अन्तरतम में रहा हुआ प्रेम-झरोखा खुल जाय तभी यह सुख समझा जा सकता है। (श्री ध्रुवदास जी का तात्पर्य यह मालूम होता है कि सहज प्रेम का सुख किसी साधन के द्वारा प्राप्त नही होता। मनुष्य के अन्दर सहज प्रेम के अनुभव की क्षमता सहज रूप से रही हुई है। चित्त की मोह आदिक अनेक मलिनताऐं उसको उभरने नहीं देती किंतु जब सहज कृपा का उदय होता है तो सहज प्रेमानुभव को कोई नही रोक पाता और कृपा पात्र जीव को सहज रूप से प्रेमानुभव होने लगता है।) ||49||
एकै प्रेमी एक रस, श्री राधाबल्लभ आहि।
भूलि कहै कोऊ और ठाँ, झूठौ जानौ ताहि ||50||
प्रेम का निरन्तर अनुभव करने वाले एकमात्र प्रेमी श्री राधावल्लभलाल हैं। भ्रम में पड़कर यदि कोई व्यक्ति ऐसे प्रेमी अन्यत्र कहीं बताता है तो वह सर्वथा झूँठ बोलता है ||50||
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