आश्चर्य । जिन्हें श्यामाश्याम से कुछ वस्तुये मिली और वें हर्ष में है ।
आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम के सामने और कोई भी हसरते है ।
आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम से केवल सुखी जीवन की चाह से तृप्ति हो जाती है ।
आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम से मिलन बाद और भी दुःख या दर्द शेष रह जाते है ।
आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम के सामने अपने शब्दों को दोहराने में परम् मधुर ध्वनियाँ सुनाई नहीं आती ।
आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम के सामने जाकर कोई ठीक वैसा ही लौट आएं ।
आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम की रूपमाधुरी के आभास या दर्शन पा कर अन्य किसी में सौंदर्य दिखाई दे । तृषित
इस बार जब श्यामाश्याम सन्मुख हो , तब बह जाना ही हो , कोई चाह नही । बस दबी सांसो की आह ।
और रस माधुरी पीते हुए दो चकोर नैना । और लौटने पर कुछ और शेष रहे , कुछ और बोध बचा हो । कही अपना आभास हो , तो रस पीने का आनन्द छुट जायेगा । सो नैनो में भर कर , हर सांस केवल श्यामाश्याम की हो जाएं । वरन् जब तक और भी कुछ जहन में बचा हो , कुछ और अपना लगता हो , नैन हटाने ही नहीँ , श्यामाश्याम से । अपने पर नहीँ उनके प्रेमाश्रय पर शेष अब सब कुछ है । अब यहाँ कुछ सबसे बड़ी बाधा ही है तो मेरा होना , ख़ुद को जी लेना । बस केवल हमारे प्रियाप्रियतम और कुछ शेष नही । कुछ और विशेष नहीँ । भ्रमर की तरह अपने सुकोमल पुष्प की गोद में शेष "मैं" सदा वहीँ बन्द हो जाएं , और जो "मैं" अब मेरा नही , भाव-रस से वो नित्य वहीँ का हो जाएं । सत्यजीत "तृषित"
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