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प्रेमावली लीला 61 से 65

नेक होत ठाड़ी कुँवरि, जेहि फुलवारी माहिं।
पत्र-फूल तहँ के सबै, पीत वरन ह्वै जाहिं ||61||

कुँवरि श्री राधा थोड़ी देर के लिए भी जिस फुलवाड़ी में खड़ी हो जाती हैं वहाँ के पत्र फूल उनके अंग की आभा पड़ने से पीत वर्ण हो जाते हैं ||61||

प्रेम रूप के मोद की, शोभा बढ़ी विशाल।
सोई लड़ैती लाल जी, कीनी है उर माल ||62||

जिन लडैती श्री राधा के प्रेंम अौर रूय के उल्लास की बड़ी विशाल शोभा बढी हुई है, उनको श्री श्यामसुन्दर ने अपने हृदय की माला बनाया हुआ है ||62||

रोम-रोम प्रति लाडिली, सहज रूप की खान।
प्रीतम की जीवन यहै, सरस मन्द मुसिकान ||63||

लाड़ली श्री राधा का रोम रोम सहज रूप की खान है। उनकी सरस मन्द मुस्कान ही उनके प्रियतम का जीवन है ||63||

अति सलज्ज अनुराग भरे, अनियारे छवि ऐन।
अरून विशद सित सोहने, काजर भीने नैन ||64||

श्री ध्रुवदास जी प्रिया के नेत्रों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ये नेत्र अत्यन्त सलज्ज, अनुराग पूर्ण, पैने, छवि के धाम, लालिमा एवं श्वेतता से युक्त सुहावने, बड़े-बड़े और काजल से भीगे हुए हैं ||64||

श्रवनाइत बाँके चपल, घूँघट पट न समात।
अवलोकत जेहि ओर कौ, छवि वरषा ह्वै जात ||65||

ये नेत्र कान तक फैले हुए, तिरछी चितवन वाले और इतने चपल हैं कि घूँघट के पट में समाते नही हैं। ये जिधर देखते हैं उधर छवि की वर्षा हो जाती है ||65||

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