🌿🌻~प्रेमावली लीला~🌻🌿
(श्री हित ध्रुवदास जी कृत प्रेमावली लीला - कुल 130 दोहे )
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प्रकट प्रेम कौ रूप धरि, श्री हरिवंश उदार।
श्री राधावल्लभलाल कौ, प्रगट कियौ रस सार ||1||
उदार श्री हरिवंश ने प्रेम की प्रत्यक्ष रूप अर्थात् ऐसा रूप जो नेत्रों से दिखलाई दे सके, धारण करके श्री राधावल्लभलाल का रस-सार संसार में प्रकट किया ||1||
हरिवंशचन्द सब रसिकजन, राखे रस में बोरि।
प्रेम सिन्धु विस्तार कै, नेम मेंड़ दई तोरि ||2||
श्री हरिवंश रूपी चन्द्र ने सब रसिक जनों को रस में डुबो दिया और प्रेम सिंधु का विस्तार करके नेम (वैदिक विधि-निषेध) के बन्धन नष्ट कर दिये ||2||
रूप बेलि प्यारी बनी, प्रीतम प्रेम तमाल।
द्वै मन मिलि एकै भये, श्री राधावल्लभ लाल ||3||
(अब श्री राधावल्लभलाल के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि) श्री राधा प्यारी रूप-सौन्दर्य की बेल है अौर प्रियतम प्रेम के तमाल हैं। इन दोनों के मन मिलकर एक श्री राधावल्लभलाल बने हैं ||3||
लपटि रहे दोऊ लाडिले, अलबेली लपटान।
रूप बेलि विवि अरूझि परीं, प्रेम सेज पर आन ||4||
यह दोनो लाडिले अनुपम प्रकार से परस्पर आलिंगन में आवद्ध हैं। इनको देखकर ऐसा लगता है मानो रूप सौंदर्य की दो लतायें प्रेम की शैया पर आकर परस्पर उलझ गई हैं ||4||
प्रेम रीति निज आहि जाे, तामें लाल प्रवीन।
अंग अंग सब हारि कै, रहे आप ह्वै दीन ||5||
प्रेम की जो सहज रीति है, उसमें लाल (श्री श्यामसुन्दर) कुशल हैं इसीलिए अपना सर्वस्व हारकर वे स्वयं दीन बन गए हैं ||5||
अलबेली नागरि जहॉ, धरत चरन छवि पुञ्ज।
पलकन की करि सोहनी, देत कुँवर तेहि कुञ्ज ||6||
परम सुन्दरी नागरी श्रीराधा शोभा के पुञ्ज अपने चरण जिस कुञ्ज में रखती हैं, कुँवर श्री श्यामसुन्दर अपने पलकों की सोहनी(बुहारी) बना कर उस भूमि का परिष्कार करते रहते हैं ||6||
धरत भाँवती पग जहाँ, रहत देखि तेहि ठौर।
को समुझै यह सुख सखी, बिना रसिक सिरमौर ||7||
प्रियतमा श्री राधा जहाँ अपने चरण रखती हैं श्री श्यामसुन्दर उस स्थान को देखते रह जाते हैं। हे सखी! बिना इन रसिक शेखर के इस सुख को कौन समझ सकता है ? ||7||
भरि आए दोऊ नैन जहँ, रहे नेह वश झूमि।
तेहि-तेहि ठाँ काहे न भई, इन प्रानन की भूमि ||8||
उनके दोनों नेत्र सजल हो गए हैं, और वे यह सोचकर प्रेम में झूमने लगे हैं कि श्री प्रिया के चरणों के रखने की जगह पर मेरे प्राणों की भूमि क्यों न हुई ||8||
देखि प्रेम पिय कौ सखी, नैन भरे जल आय।
समुझि दशा पिय की तबहि, पुतरिन लियौ समाय ||9||
अपने प्रियतम के इस अद्भुत प्रेम को देखकर श्री प्रिया ने नेत्र जलपूर्ण हो जाते हैं अौर प्रियतम की दशा को समझकर वे उनको अपने नेत्रों की पुतलियों में बसा लेती हैं ||9||
लिए दीनता एक रस, महा प्रेम रँग रात।
प्यारी ऐसे पीय कौ, देखत हूँ न अघात ||10||
महा प्रेम के रंग में रँगे हुए श्री श्यामसुन्दर एक रस (सदैव) दीनता ग्रहण किए रहते हैं। श्री प्रिया अपने ऐसे प्रियतम को देखकर कभी अघाती नहीं हैं ||10||
जावक रंग भीने चरन, गौर बरन छवि सींव।
निरखत पिय अनुराग सौं, ढरी जात अध ग्रींव ||11||
श्री प्रिया के जावक के रंग से भीगे हुए, छवि की सीमा गौर वर्ण चरणों को उनके प्रियतम अनुराग पूर्वक देख रहे हैं अौर उनकी ग्रीवा नीचे की ओर झुकी जा रही है अर्थात् वे देहानुसन्धान भूलते जा रहे हैं ||11||
अंग अंग सब लाल के, झुकत प्रिया की ओर।
सहज प्रेम कौ ढार परयौ, बँधे नेह की डोर ||12||
श्री श्यामसुन्दर का अंग अंग श्री प्रिया की ओर झुका रहता है अर्थात् वे सम्पूर्ण रूप से श्री प्रिया में आसक्त रहे आते हैं।उनके मन में सहज प्रेम का ढाल लगा हुआ है अर्थात उनके मन की सम्पूर्ण वृत्तियाँ श्री प्रिया की ओर दौड़ती रहती हैं।इसका कारण यह है कि वे प्रेम की डोर से बँधे हुए हैं||12||
जिनके है यह प्रेम रस, सोई जानत रीत।
जो हारै तो पाईए, नेह खेत में जीत ||13||
जिनको इस प्रेम रस का अनुभव है वे ही इसकी रीति जानते हैं। उनको मालूम है कि प्रेम के क्षेत्र में वही जीतता है जो सम्पूर्ण रूप से अपनी पराजय स्वीकार कर लेता है ||13||
मन के पाछे मन फिरै, नैनन पाछे नैन।
यहै एक सुख लाल कै, रह्यो पूरि उर ऐन ||14||
श्री श्यामसुन्दर का मन सदा श्री प्रिया के मन का तथा उनके नेत्र श्री प्रिया के नेत्रों का अनुसरण करते रहते हैं। यही एक सुख श्री श्यामसुन्दर के हृदय में सदा भरा रहता है ||14||
नैनन छ्वावत फिरत पिय, पत्र फूल बन जेत।
प्रान प्रिया दृग छटा जल, सींचे सखि यह हेत ||15||
श्री श्यामसुन्दर श्री वृन्दावन के पत्रो और पुष्पों का स्पर्श अपने नेत्रों से यह सोचकर करते रहते हैं कि वे पत्र-पुष्प श्री प्रिया की नेत्र छ्टा रूपी जल से सींचे हुए हैं। अर्थात् इन पत्र-पुष्पों पर श्री प्रिया की नेत्र छ्टा सदा पड़ती रहती है ||15||
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