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प्रेमावली लीला 41 से 45

पट भूषन जे कुँवरि के, प्रीतम के ते प्रान।
अति अनन्य रस प्रेम में, परसत नहिं कछु आन ||41||

श्री प्रिया के वस्त्राभूषण उनके प्रियतम को प्राणों के समान प्रिय लगते हैं। श्री श्यामसुन्दर प्रेम रस में अत्यन्त अनन्य हैं। अतः वे प्रसादी वस्त्राभूषणों के अतिरिक्त अन्य का स्पर्श नही करते ||41||

ते पट भूषन पहिरि पिय, सहचरि कौ बपु बानि।
फिरत लिए अनुराग सों, कुसुम बीजना पानि ||42||

उन बस्त्राभूषणों को पहिन कर, स्वभावत: श्री श्यामसुन्दर का सखी रूप बन जाता है और वे प्रेम पूर्वक हाथ में फूलों का पंखा लेकर श्री प्रिया के साथ घूमते रहते हैं ||42||

प्रेम कुँवर कौ समुझि कै, प्रेम वारि भरि नैन।
रही लपटि पिय के हिये, सो सुख कहत बनै न ||43||

अपने प्रियतम का इस प्रकार का प्रेम देखकर श्री प्रिया के नेत्र प्रेमाश्रु पूरित हो जाते हैं और वो अपने प्रियतम के हृदय से लिपट कर रह जाती हैं। श्री ध्रुवदास कहते हैं कि इस सुख का वर्णन नही किया जा सकता ||43||

अमित कोटि जुग कलप लौं, राखे उरजन माहिं।
वे सब लव त्रिसरेनु सम, बीतत जाने नाहिं ||44||

अनन्त कोटि युग-कल्पों तक श्री प्रिया ने शाने प्रियतम को हृदय से लगाए रखा। किंतु इस लम्बी अवधि को श्री श्यामसुन्दर ने कुछ क्षणों के समान ही अल्प समझा ||44||

प्रिया प्रेम आसव महा, मादिक रहै दिन रैन।
कैसे छूटै विवशता, भरि-भरि पीवत नैन ||45||

श्री प्रिया का प्रेम-सौंदर्य महान आसव (मदिरा) के समान है और उसकी मादकता दिन रात चढ़ी रहती है। श्री श्यामसुन्दर नेत्र भर-भर कर उसका पान करते रहते हैं। भला उनकी यह विवशता कैसे कम हो सकती है ||45||

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